Sunday, November 27, 2011

If you do it right, once is enough


“You only live once, but if you do it right, once is enough.”  ― Mae West

Isn't it ? thoughts, words, feelings, decision & people the all surrounds us in a time period & we always in search of happiness lost to understand it.
Once i did Bio and wanna be a doctor. i wasn't. Then somebody met me in a train and had a bomb Idea, which changed my life. till that time I was no one. but after that i was someone. But now again I am No One.
Just like Chetan Bhagat's Five point someone, I was on the way of Delhi for a medical entrance exam. In passenger's list i was searching the name of people around me during the journey. for last seven years it was my good luck but for now it was my bad luck. I met a journo in front of my Berth. he was the first one who successfully scanned me and suggested me to become a journalist. when it comes to me i found myself very worth full, and so, i started dreaming my old BBC days.
Journey Begins
but my family wasn't sure that i should opt this. my father had few journo friends and they were (and still they are ) writing the truth for few bucks. I told him i m not that kind of person. I have my social values and respect so i'll never do this. but he wanted me to opt any government job and so, he suggested me to be a part of Banaras Hindu University ( where i was selected ) for my graduation course. i struggled too much for a world of fame, for taking a responsibility to change the look of nation and i decided to quit home.
I did this, and came back to Patna. and filled the form of Amity University, Raipur Campus. i was single son of my parents. so, I knew at some point they had to loose. and finally amity called me for an interview.
Raipur Days
I was n still I am poor in English, and first time i knew the power of it. but i won and interviewed in Hindi and enrolled for Mass Communication Course. i did it with lots of struggle. in terms of language, personality, money, government and relations. But for certain government policy i had to switch myself lucknow with bunch of my friends.
Lucknow Days
Lucknow changed my life. Madiha Hasan, Shinjini Singh, Harshita Talwar, Harsh Singh, Ashish Dixit and the most talented buddy Hem taught me at every point of mistake. they care me, they loved me and they made me, what I am today. Ashish tiwari, Stuti Bagrecha, Namrata srivastva, Monalika Ray, Nupur Gupta & Shriya sengupta few were more who loved me as i am. and support me all the time. But few people like Anita Gautam, Ashish Khare, Ritu Sen & Minisha Singh was the mentor who developed me as i was. in true meanings lko days made me Mad and still it continued.
Post Journalism and pre-communication Days
Mumbai to pune, pune to mumbai, mumbai to delhi, delhi to mumbai and finally mumbai to delhi.... Cinema my new buddy was at my head. I forget my past and started dreaming a prem called Director Prem. during these day i met with real world. pain, hunger, defeat, silence, loneliness and list goes on n on.......
Delhi could be a better start but unfortunately it couldn't. anyway I got Chhoti back in my life and Phillips and Hathi were in the package. thank God they still are with me.
But it wasn't beautiful. Optimism is good all the time but at the end result matters.
Signing out
Take care.

Saturday, September 3, 2011

राजनेताओं के खेल में फंसा विधेयक


कहा और माना जा रहा है कि युवा इस देश की किस्मत लिखंगे . कई हैं जो इस रास्ते पर चल भी रहे हैं. ताजा उदाहरण युवा एवं खेल मंत्रालय संभाल रहे दिल्ली के युवा नेता अजय माकन की करते हैं.  दिल्ली के निवासी और राष्ट्रमंडल खेलों को नजदीक से देखने वाले माकन ने भारतीय खेलों की नसीब लिखने का बीड़ा उठाया और खेल विधेयक को संसद में लेकर आए. पर उन्हें वापस उसी रास्ते पर भेज दिया गया जिस रास्ते से चलकर कभी 8 ओलंपक स्वर्ण जीत चुकी भारतीय हॉकी चलती आ रही है. ये क्यों और कैसे हुआ ये समझना ज़रूरी है. सिक्के के तीन पहलू हैं. पहला अजय माकन जो युवा राजनेता हैं और कांग्रेस पार्टी के दिल्ली से संसद हैं. माकन पहली बार चर्चा में तब आए थे जब शिला दीक्षित  ने अपने मंत्रिमंडल में माकन को ट्रांसपोर्ट, पॉवर, और टूरिज्म मंत्रालय का कार्यभार दिया था. 2001 में मंत्रालय मिलते ही माकन ने पब्लिक ट्रांसपोर्ट वाली गाड़ियों के लिए सीएनजी के प्रयोग से दिल्ली के वायुमंडल को ज्यादा प्रदुषण से बचाने तथा पेट्रोल और डीजल पर बढ़ रहे बोझ से मुक्ति दिलाई.  इस बार माकन ने खेलों के वायुमंडल में फैले प्रदुषण को हटाने की कोशिश की थी. पर यंहा सिक्के के दुसरे पहलू में बैठे लोग थे. खेल संघों के कार्यकारणी में बैठे लोग. अगर आज़ाद भारत का इतिहास उठा कर देखा जाए तो इन्ही लोगों के कारण भारतीय खेलों का पतन दिखता है. केन्द्रीय या राज्य स्तरीय खेल संघो में राजनेताओं और उद्योगपतियों की जमात है जो कई सालों से कब्ज़ा जमाये बैठे हैं, और इन्हीं संघों में पूर्व खिलाड़ियों की उपस्थिति अंगुलियों पर गिनी जा सकती है. यही वजह बनती है खेलों में भ्रस्टाचार पनपने की. खेलों पर राजनीतिक ज़मावड़े के कारण माकन की कोशिश थी कि खेल संघों को सुचना के अधिकार कानून के तहत लाया जाए जिससे इसमें पारदर्शिता लाई जा सकती है. साथ ही कार्यकारणी में 25 प्रतिशत से ज्यादा वो लोग हों जो कभी संबंधित खेल से खिलाड़ी के तौर पर जुड़े रहे हों. पर ऐसे कदम से उन राजनेताओं की रोजी रोटी बंद हो जाएगी जो खेल संघ के पद पर रहते हुए मोटी कमाई करते हैं  और प्रोफाइल को समाज में कैश कराते हैं. 
ज़रा ध्यान दीजिये शरद पवार (क्रिकेट, महाराष्ट्र ओलंपिक संघ ), सुरेश कलमाड़ी (ओलंपिक), विजय मल्होत्रा (तीरंदाजी), अभय सिंह चौटाला (बॉक्सिंग), जगदीश टायटलर (जुडो), अखिलेश दास (बैडमिन्टन, उत्तर प्रदेश ओलंपिक संघ), प्रफुल पटेल (फ़ुटबाल), यशवंत सिन्हा (टेनिस), बिरेन्द्र प्रताप वैश्य (वेटलिफ्टिंग), तरुण गोगोई, रोक्य्बुल हुसैन ( असम ओलंपिक संघ ), रमण सिंह ( छत्तीसगढ़ ओलंपिक संघ ), जे पी नद्दा, ( हिमाचल ओलंपिक संघ), रमेश मेंडोला ( मध्य प्रदेश ओलंपिक संघ ), बिजोय कोइजम (मणिपुर ओलंपिक संघ), लाल थान्ह्वाला (मिजोरम ओलंपिक संघ), नेइफिउ रिओ (नागालैंड ओलंपिक संघ), समीर डे (उड़ीसा ओलंपिक संघ), सुखदेव सिंह धीधंसा (पंजाब ओलंपिक संघ), फारूख अब्दुल्ला (जम्मू एवं कश्मीर क्रिकेट संघ ), सी पी जोशी ( राजस्थान क्रिकेट संघ ), विलासराव देशमुख (मुंबई क्रिकेट संघ ), ज्योतिरादित्य सिंधिया (मध्य प्रदेश क्रिकेट संघ ), राजीव शुक्ला (उत्तर प्रदेश क्रिकेट संघ ), अरुण जेटली (दिल्ली एवं जिला क्रिकेट संघ), नरेंद्र मोदी (गुजरात क्रिकेट संघ), दयानंद नार्वेकर (गोवा क्रिकेट संघ) और अनुराग ठाकुर ( हिमाचल क्रिकेट, ओलंपिक संघ ) जैसे व्यक्ति राजनेता हैं. इनके अलावा पंजाब के आई एस बिंद्रा, विदर्भ के प्रकाश दीक्षित, सौराष्ट्र के भारत शाह, बंगाल के जगमोहन डालमिया, केरल के टी आर बालाकृष्णन, झारखण्ड के अमिताभ चौधरी, आंध्र प्रदेश के डी वी सुब्बाराव समेत सैकड़ों ऐसे लोग हैं जिन्होंने कभी किसी राज्य या राष्ट्रिय स्तर का कोई भी खेल नहीं खेला है सिवाय खेल संघों में बैठ कर खिलाड़ियों के भविष्य के साथ खेलने के. 
खेल विधेयक को लाने में जिस तीसरे पहलु से माकन को सबसे ज्यादा मुंह की खानी पड़ी वो बीसीसीआई है. राजनेताओं और उद्योगपतियों के भरमार होने के बावजूद  बीसीसीआई एक सफल संस्था है जिसने भारतीय क्रिकेट को वाकई नया आयाम दिया है. फिर भी सच्चाई यह है कि क्रिकेट का भी जीवनपर्यंत भला तभी संभव है जब इसे रेगुलेट करने वाले लोग क्रिकेटर हों. बीसीसीआई में काबिज एन श्रीनिवासन, राजीव शुक्ला, अरुण जेटली जैसे लोगों के पास और भी कई काम है मसलन वकालत, उद्योग, देशवासियों का विकास वगैरह, वगैरह. पूर्व क्रिकेटर जो सन्यास के बाद खाली बैठे हैं वो भारतीय क्रिकेट को ज्यादा समय दे सकते हैं. खेल विधेक में  माकन का नज़रिया एक हद तक जायज है. कार्यकारणी में 25 प्रतिशत से ज्यादा खिलाड़ियों के होने से खिलाड़ियों के नज़रिए को मजबूती मिलेगी एवं उनकी खेलों को लेकर समझ क्रिकेट के भविष्य को और भी बेहतर बनाएगी. और जंहा तक सवाल है सुचना के अधिकार की तो बीसीसीआई से जुड़े और खेल विधेयक का विरोध कर रहे लोगों को ये मालूम होना चाहिए कि फिलहाल धोनी बीसीसीआई के कप्तान नहीं हैं बल्कि भारतीय टीम के कप्तान हैं. सचिन बीसीसीआई के लिए नहीं खेलते वो प्रभाष जोशी जैसे उन दर्शकों के लिए खेलते हैं जिन्हें सचिन के आउट होने पर हार्ट अटैक आ जाता है. भारतीय टीम में खेलने वाले और इन्हें रेगुलेट करने वालों पर सूचना लेने का अधिकार है देशवासियों को. ये राजीव शुक्ला तय नहीं कर सकते यह दर्शक तय करेंगे.  अजय माकन के प्रयास को सबसे ज्यादा विरोध का सामना बीसीसीआई और ओलंपिक संघ का करना पड़ा. लेकिन ओलंपिक संघ के कार्यकारणी के इतिहास पर  ज़रा नज़र डालिए. दोराबजी टाटा 10 साल, महराजा भूपिंदर सिंह 10 साल, महराज भूपिंदर सिंह के बड़े बेटे महराजा यादविंद्र सिंह 22 साल एवं छोटे बेटे भालिन्द्र सिंह 19 साल, ऑम प्रकाश मेहरा 4 साल, विद्या चरण शुक्ला 3 साल, सिवंती अदिथन 9 साल, सुरेश कलमाड़ी 15 साल.  और इतिहास के पन्ने को एक बार फिर पलटिये ये जानने के लिए कि क्रिकेट और हॉकी को छोड़कर खेलों में हमने किया क्या? 
लेखक वॉयस ऑफ मूवमेंट दैनिक अखबार के समाचार सम्पादक हैं. 

Sunday, August 14, 2011

किस्मत और उम्मीद


आज़ादी तय थी इसलिए हमें मिली. ये शब्द मेरे नहीं बल्कि आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के थे. पर प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने अपने पहले भाषण में "किस्मत" के अलावा एक और महत्वपूर्ण शब्द का प्रयोग किया था, "उम्मीद". उम्मीद एक बेहतर राष्ट्र निर्माण की. कंहा हैं बेहतर राष्ट्र ? और ये सवाल अब किससे किया जाय ? पंडित नेहरु की आत्मा से या उनके वंशजों से, जो आज भी उम्मीद की बात करते हैं. भविष्य की किस्मत को अगर वर्तमान की उम्मीद के तौर पर देखें तो पंडित नेहरु समेत तमाम लोग जिन्होंने देश की बेहतरी की बात की, बेईमान लगते हैं. 
मैं सुबह घर से निकलता हूं और दिनभर हिन्दुस्तान की गलियों में, घरों में घूमता रहता हूं. दुकानदार को जब बेचता देखता हूं तो वो कोई और दिखता है जब उसे खरीददार बना देखता हूं तो वो कोई और दिखता है. नेताओं को जब बोलता हुआ देखता हूं वो कोई और होता है जब उसे किसी राजनितिक समीकरण बनाता देखता हूं वो कोई और होता है. मैं दुखी ज़रूर हूं पर भ्रस्टाचार से नहीं और ना ही  भ्रस्टाचारियों से. यहां तो हर कोई भ्रस्ट है. दुखी इस बात से हूं कि मैं यंहा हर रोज़ अपने उम्मीद को हारते देखता हूं.  पुलिस की मजबूरी  से दुखी होता हूं. वकीलों के तर्क से दुखी होता हूं. मीडिया के नज़रिए से दुखी होता हूं. हमारे ऑफिस में 4000 की पगार पर दिन भर मेहनत करने वाले एक सहयोगी को अपनी बहन की शादी के दहेज़ के लिए ज़मा करते पैसे से हतप्रभ होता हूं. 
हां, जंग में कुर्बानियां होती हैं और इस बात का अफ़सोस उन्हें भी नहीं था जो शहीद हो गए. पर इस बात की ख़ुशी उन्हें मिल गई जो जिन्दा बच गए थे. आज़ादी की लड़ाई को उन लोगों ने हर गली, हर मोहल्ले में कैश किया. पंडित नेहरु की उम्मीद कंहा चली गई जब उनके वंशजों के शासन काल में पुणे में एक और जालियांवाला नरसंहार हुआ. क्या नेहरु को नहीं मालूम था कि ६ दशक बाद उनकी उम्मीद क्या रूप अख्तियार करेगी. खूलेआम डकैती हो रही है, लूट हो रही है, बलात्कार हो रहे हैं. शासन भ्रस्ट है. प्रशासन मजबूर है. क्रिमिनल आज़ाद हैं. आम नागरिक परेशान हैं. किसान आत्महत्या कर रहे हैं. राजनेता एक दुसरे पर सिर्फ आरोप प्रत्यरोप कर रहे हैं. क्या नेहरु की उम्मीद यही थी. अगर यही थी तो राहुल गांधी की उम्मीद का क्या रूप होगा उसका अनुमान किसी भी  देशभक्त के रोंगटे खड़ा कर सकता है. कंहा होंगे हम अगले ६ दशक में. अरबों की आबादी, अशिक्षा, बेरोजगारी कुछ भी नियंत्रण में नहीं है. और अब ना तो समाज रहा ना ही अनुशासन. गांव अब शहर आ चुका है, शहर में पैर रखने की जगह नहीं है. शहरों में संसाधन नहीं हैं. गांव में जंहा मौजूद संसाधनों को विकसित किया जा सकता है वंहा वितरण की कोई नीति नहीं है. 
ज़रा फ़र्क देखिये गुलाम और आज़ाद भारत में, कल जब मराठावाद की गूंज उठी थी तब मकसद अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ना था, आज़ाद भारत का मराठावाद अब अपने ही देश में अलगाव पैदा कर रहा है. कल तक जिनके चेहरे से नफरत थी हमारे पूर्वजों को आज उनके बनाये फास्ट फ़ूड हमें रोटी दाल से अच्छे लगते हैं. कल विरोध का मतलब था सुख, शांति, चैन आज विरोध का मतलब है स्वार्थ, अपनी ख़ुशी. एक हद तक ये गलत भी नहीं है पर फिर देश, समाज, विकास के ये खाखोसले ढोंग क्यों ? भारतीयों से बेहतर भारत को मैकाले ने समझा था जिसका परिणाम हमारे सामने है. ना हमारी भाषा, ना हमारी संस्कृति हमारी संपत्ति है. सब खत्म हो गया, अंग्रेज गए अपनी अंग्रेजी छोड़ गए. 
जात पात, उंच नीच, छोटा बड़ा, गाँव, शहर, मोहल्ला, मर्द, औरत, मालिक, नौकर, सीनियर, जूनियर और ना जाने कितने उपनामों से हमने खुद को एक दुसरे से अलग कर रखा है. और अनेकता में एकता का पाठ पढ़ाकर बौद्धिक जुगाली में खुश होते हैं हम. कोई जन लोकपाल बिल इस देश को नहीं बदल सकता. और न ही कोई अन्ना हमारा नसीब लिख सकता है. इस देश को हम खुद बदल सकते हैं. पर इसके लिए हमें बदलना होगा. औरों को परखना बंद करना होगा. खुद को शीशे के सामने रख खुद के अन्दर के कलमाड़ी और ए राजा की पहचान करनी होगी . 

Thursday, July 7, 2011

आधी आज़ादी


कहते हैं कि एक कोस पर पानी और चार कोस पर बानी बदल जाता है. गाँव की यह कहावत नव उदारवाद युग के विकास में चरितार्थ होने लगा है. भट्टा परसौल भले ही इसका ताज़ा उदहारण हो लेकिन अगर गुजरे वक़्त को देखें तो कई ऐसी घटनाएँ दिखती हैं जिसने उदारवाद के बहाने लोगों को अपने मूल से अलग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. अगर इस पूरे प्रक्रिया में किसी का नुकसान होता है तो वह सिर्फ और सिर्फ किसान हैं जो ज़्यादातर अशिक्षित हैं और आर्थिक युग में पैसे से कमज़ोर हैं. विकास के नाम पर इन्हें इनकी ज़मीन के बदले पैसे दे दिए जाते हैं और उन ज़मीनों पर उद्योगों को स्थापित किया जाता है. उपरी तौर पर देखा जाय तो किसानो को ज़मीन के बदले पैसे भी मिल जाते हैं और विकास भी होता है जो वैश्विक स्तर पर सही भी है, पर मूल रूप से कटते किसान के हालात ज्यों के त्यों बने रहते हैं. समय के साथ ना इनके पास ज़मीन बचती है ना विकसित राष्ट्र का हिस्सा बन पाते हैं. हाँ, इस दौरान आत्मविहीन राजनीति अपना फायदा ज़रूर निकाल लेती है. चाहे सिंगूर हो, विदर्भ हो, बुंदेलखंड हो, मेवात हो या फिर भट्टा परसौल हो, हाई  एक्शन मेलोड्रामा वाली इन फिल्मों का प्लाट लगभग एक ही है. उद्योगपति सरकार या फिर सबंधित मंत्रियों को पैसा देती है और फिर विकास के नाम पर हमेशा से किसान लूटते रहे हैं. बेशर्म राजनेता हर और से सिर्फ अपने फायदे की जुगत में लगे रहते हैं.

सन 1527 में बाबर के खिला़फ ल़डते हुए एक ही दिन में 12 हज़ार मेवाती योद्धा शहीद हो गए थे. शहीद इसलिए हुए थे क्योंकि अपनी ज़मीन को विदेशी दुश्मनों से बचाना था. लेकिन अब अपनी ज़मीन बचाने के लिए मेवात के लोगों के पास इतिहास दोहराने का भी विकल्प नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में सशस्त्र संघर्ष की अनुमति नहीं है और शांतिपूर्ण प्रदर्शन की गूंज सरकारी दरवाज़ों को भेद नहीं पाती. किसानों के दुख और ग़ुस्से का एक ही रंग है स्याह, पर बोलियाँ अलग अलग हैं. मजबूर लोग ताउम्र संघर्ष करते रहते हैं और विरोध करने वालों को उग्रवादी के नाम से पुकारा जाने लगता है. विकासशील से विकसित होते भारत के एक मुहाने पर किसान बैठे हैं और दूसरी तरफ इनके प्रयोग करने वाले जो उदारवाद के नाम, समय - समय पर इनको चूसा करते हैं.  हाऊसिंग सोसाइटी, हाई वे, रेस ट्रैक, शॉपिंग मॉल्स, स्टेडियम, आइ टी हब्स और गोल्फ कोर्स में तब्दील हो चुके खेत अब गाँव को हरियाली नहीं दे पा रहे हैं.  उठते ज्वार की तरह आधुनिक जमाने की ये सुविधाएँ गाँवों को खत्म करते जा रही है. अब ये वीरान टापू की शक्ल ले चुके हैं कोई शक नहीं कि आने वाले ५० -६० सालों में कोई किसान बचे ही नहीं.  जिन हालात में रहकर किसान संघर्ष कर रहे हैं या तो वो कुपोषण से मारे जायेंगे या लोकतंत्र का ये बिगडैल तंत्र उन्हें अगले ५-६ दशक में गोलियों से भून डालेगा.
टप्पल, हमीदपुर, भट्टा परसौल देश कि राजधानी से मात्र १०० किलोमीटर की दुरी पर हैं पर विकास को आधार बनाकर देख जाय तो सदियों पीछे दिखेंगी. ना तो वंहा इलाज़ की समुचित व्यवस्था है और न तो शिक्षा के बेहतर केंद्र. एक तरफ विकास की बात हो रही है तो दूसरी और पिछडापन का नज़ारा है. सडकें गॉवों से शहरों तक आयें तो इसे विकास कहा जा सकता है लेकिन सडकें शहरों से गॉवों तक आ रही हैं तो कहा जा सकता है कि ये गलत नीयत से आ रही हैं । विकास स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन विकास का नारा लगाकर चुनाव जीतने वाले लोग हमें बताते हैं कि सडक, कार, मोबाइल या फिर ऐसी ही दूसरी चीजें विकास है तो यह क्यों छुपाते हैं कि इनमें से कौन सी चीज हमने विकसित की है। सरकारें सिवाय दूसरे देशों के माल को अपने यहॉ खपा कर बदले में अपनी प्राकृतिक सम्पदा और धन अकूत मात्रा में बाहर के मुल्कों को देने के अलावा कुछ नहीं कर रही है। विकास क्या है ? उपभोक्ता बनकर खरीददारी करना या वस्तुओं का निर्माण कर उसका बेहतर बाज़ार बनाना. विकास के बहाव में ज़िन्दगी को क्यूँ नीरस किया जा रहा है. ऊँची ऊँची दीवारों से विकास संभव नहीं हो सकता. किसी भी देश का विकास वंहा रहने वाले लोगों से होता है. लोगों का विकास ६ लेन रास्तों या रेस कोर्स से नहीं हो पायेगा. बारात आज भी अपनी मूलभूत समस्याओं से लड़ रहा है. हमारे पास स्कूल, अस्पताल और यातायात के उचित साधन नहीं हैं. पहले इन्हें स्थापित करना होगा. इनसे मनुष्य का विकास होगा. फिर ये विकसित मनुष्य विकसित राष्ट्र बना पाएंगे. नहीं तो किसी दिन कोई सुनामी या फिर पाकिस्तान या चीन का मिसाइल इन ऊँची ऊँची इमारतों को ढाह देगा और हम उस दिन फिर संघर्ष करते नज़र आयेंगे. शहरों की अनियंत्रित भौतिक ख्वाहिशें गांवों की खांटी पहचान को निर्ममता से लील रही हैं  और ये सब वह सरकार कर रही है जो हमारी चुनी हुई कही जाती है.
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भूमि अधिग्रहण से संबंधित वर्षों पुराने कानून के संशोधन की दिशा में कोई कदम नहीं उठाती है और राहुल गांधी उसी कानून के तहत होने वाले भूमि अधिग्रहण का विरोध करते हैं, लेकिन सिर्फ वहीं, जहां गैर कांग्रेसी दलों की सरकार है. किसानों पर फायरिंग होती है, किसान मरते हैं, औरतें विधवा होती हैं, बच्चे अनाथ होते हैं, तब राहुल गांधी उनकी खबर लेने नहीं जाते. मगर जैसे ही धारा-144 हटा ली जाती है, वह फौरन पहुंच जाते हैं, मानो आग ठंडी होने का इंतज़ार कर रहे हों और फिर राख के ढेर से चिंगारी तलाश कर उसे भड़काने की फिराक में हों, जिस पर वह अपनी सियासी रोटियां सेंक सकें. घर घर जाकर  रोती-बिलखती महिलाओं एवं बच्चों से मिलकर उन्हें सांत्वना देते हैं, उनके दु:ख-दर्द बांटने की कोशिश करते नज़र आते हैं. वह किसानों की मांगों के समर्थन में धरने पर भी बैठ जाते हैं और मीडिया में सु़र्खियां बटोरने में कामयाब भी हो जाते हैं. अगर वाक़ई वह किसानों के सच्चे हितैषी होते तो गांव भट्टा जाने के बजाय सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय जाते और भूमि अधिग्रहण क़ानून के संशोधित विधेयक को पारित करने की कोशिश करते. सच्चाई यह है कि राहुल गाँधी नहीं चाहते यह मुद्दा सुलझे नहीं तो भ्रस्टाचार के आरोपों से लड़ रही कांग्रेस को ध्यान भटकाने के लिए कोई और मुद्दा आगामी उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव तक नहीं मिलेगा साथ ही इसी मुद्दे के सहारे वो सत्तासीन बहुजन समाजवादी पार्टी पर हमला करते रह सकते हैं. पर जनाब, आप पर ये सोभा नहीं देता. जिस युवा नेतृत्व के नाम पर आपने शुरुवात की थी वो खत्म हो चुका है, और इसे किसी और ने नहीं बल्कि आपकी अज्ञानता ने किया है. आप इंदिरा गाँधी के परिवार से ताल्लुक रखते हैं ये देश आपका जागीर है. भले ही आप पूर्ण रूप से आज़ाद हों पर आधी आज़ादी में जीने वालों के मर्म को आप नहीं समझ सकते. पढ़े - लिखे हो, कम से कम सच तो बोलना सिख जाओ. क्यूँ नहीं बताते आप कि सिर्फ आपका पोलिटिकल अजेंडा है. बताओ लोगों को कि किसानों के नाम आप सिर्फ राजनीति कर रहे हों... तब इस देश के युवा आप पर भरोषा करेंगे.

Thursday, June 30, 2011

लौट आओ बापू

पर इस बार अहिंसा नहीं सकरात्मक प्रतिरोध को साथ लेकर आओ, क्युंकि ये पत्थरदिल लोग अहिंसा की बात नहीं समझते.
सत्याग्रह के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता महात्मा गाँधी आज फिर आपकी ज़रुरत है. राष्ट्रपिता का दर्ज़ा देकर, आपकी फोटो नोटों में देकर, आपके नाम से गलियों का नाम रख और आपके नाम से मैदानों का नाम रख लोगों ने आपके आड़ में क्या क्या किया और क्या क्या कर रहे हैं आप नहीं जान सकते. कोई भगवान या खुदा नहीं है जो देख रहा हो. पर बापू अगर आना तो इस बार अहिंसा के साथ मत आना नहीं तो हार जाओगे. आपने जिस हिन्दुस्तान का सपना देख उसे आज़ाद करने में अपनी पूरी ज़िन्दगी लगा दी थी उसके लोग अब सिर्फ हिंसा की जुबान समझते हैं.
बापू तेरे पदचिन्ह आज भी अछूते हैं क्युंकि उसपर कोई चला ही नहीं. २ अक्टूबर को दारु की दुकाने बंद तो रहती हैं पर अगर आप आओगे तो मैं आपको दिखलाऊंगा यंहा हर गली, हर मोहल्ले में उस दिन ब्लैक में दारु मिलती है. खैर बेचने वालों की बात छोडिये ये धंधा है उनका, आखिर पापी पेट का सवाल जो है. पिने वालों की बात करते हैं. जब आप जिंदा थे तो लोग गंगा जल पीते थे कि अमर हो जाएँ अब गंगा नहाने के लायक भी नहीं है मजबूरन लोगों ने रम, वोदका और विस्की का सुबह से शाम तक सहारा ले लिया है. काश आप आज के दिनों का अखबार पढ़ते कल तक जंहा अखबारों में विचारों और सिधान्तों कि जगह होती थी आज उनमें सिर्फ हत्या, लूट, बलात्कार और भ्रस्टाचार सना होता है. अब अधिकारों के लिए कोई नहीं लड़ता बापू, किसी को फुर्सत नहीं है, वास्तव में आज़ाद जो हो गए हैं. आज़ादी से याद आया, क्या खूब आज़ादी दिलाई आपने. लोग अब कंही भी कभी भी किसी का बलात्कार कर लेते हैं, हत्या कर देते हैं, अब चोर रहे ही नहीं सब डकैत हो गए हैं. इतनी बेहतरीन आजादी शायद दुनिया में कंही नहीं होगी. भेदभाव की बात ही छोड़ दो, एक आप थे जो सर्वजन कि बात करते थे दूसरी मायावती हैं जो आजकल मुख्यमंत्री हैं एक प्रदेश की वो बात करती हैं. फ़र्क सबको मालूम है बताने की ज़रुरत नहीं है.

मैं सूट, कोट, जिन्स जैसे पश्चिमी कपड़ों का विरोधी नहीं पर आपको बताते चलूँ आपके विकसित भारतीयों को कुरते और धोती से नफरत होती है जिन्होंने आजतक धोती नहीं छोड़ी है उन्हें हीन भावनाओं से देखा जाता है. खैर आज़ाद देश है कुछ नहीं कह सकते, पर भाषा को तो देखो हिंदी लोगों को आती ही नहीं. हाँ, याद आया इस बार आना तो अपने आप को बदल कर आना. अधनंगे होकर हिंदी में इमानदारी की बात मत करना इस बार सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी चलेगा और कुछ नहीं. अब संघर्ष के मायने बदल गए बापू, महंगाई जो इतनी बढ़ गई है. आपके चरखे से निकला खादी अब ब्रांड हो गया है. इसे वही लोग बेचते हैं जिनको आपने खदेड़ कर भगाया था.

अब आपके कांग्रेस में कोई गोपाल कृष्ण गोखले नहीं रहे अब यंहा सिर्फ १० जनपद है जंहा से आदेश पारित होता है. एक आप थे जो कहते थे भारत को समझाने के लिए भारत भ्रमण ज़रूरी है, आज हालात यह है कि १० जनपथ का भ्रमण हो गया तो वो अरबों का मालिक बन जाता है. हाँ, भ्रमण से याद आया अब पैदल भ्रमण नहीं होता बापू, बड़ी - बड़ी गाड़ियों के काफिला में आज के समाजसेवक मिडिया वालों के साथ बात करते - करते भ्रमण किया करते हैं. गर्मी बढ़ गयी है न चेहरा काला हो जाता है. आपको याद दिलाऊँ, आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि जिस चंपारण से मिली थी उस प्रदेश की बात करते हैं. उसकी राजधानी पटना में आपके नाम से एशिया प्रसिद्ध सेतु है. पिछले २५ सालों से उसकी तबियत ख़राब है. प्यासा है, विकलांग है. खैर जब आओगे तब मैं आपको ले चलूँगा. जंहा तक मुझे लगता है इस बार भी आपका आन्दोलन वंही से शुरू होगा, पर इस बात के लिए नहीं कि सेतु ठीक हो जाये बल्कि इसलिए कि सेतु से आपका नाम हटे. बिहार आया तो एक बात और बताते चलूँ. आप, लाल बहादुर शास्त्री और सरदार पटेल किसानों को निर्भर बनाने कि बात करते थे आज का हाल तो देखिये किसानों के पास खेत रहे ही नहीं उनपे ऊँची - ऊँची इमारतें बन गयी और जो खेत बच गए उनपर खेती करने के लायक किसान नहीं बचे, क्या करें मंहगाई जो इतनी है.

पता है ये सब क्यूँ हुआ?, क्युंकि आपने तब अपना पूरा ध्यान भारत के भविष्य के बजाय सिर्फ आज़ादी प्राप्त करने पर दी थी. क्यूँ सह दिया था आपने इस कांग्रेस को? जिन गोरों को आपने भगाया था ये उन्हें विकसित मानकर उनके पीछे चलने के आदि हो गए हैं. लार्ड मेकाले याद है आपको, कितना मजबूर होकर लन्दन लौटा था वो हमारी भाषा, संस्कृति और संगठित समाज से हारकर. आप गए और वो खुद ब खुद जीत गया बापू. ना हमारी भाषा रही, ना संस्कृति ना समाज. समाज की छोडो अब घर नहीं रहा. २/२ के फ्लैट अब लोगों को आज़ादी का अहसास दिलाते हैं. अनसन और सत्याग्रह करो तो लाठियां चलाती है आपकी ये कांग्रेस. एक आप थे जो जवाहरलाल नेहरु के लिए बोलते थे एक दिग्विजय सिंह हैं जो राहुल गाँधी के लिए बोलते हैं. वैसे आजकल एक और राजनीतिक पार्टी भी है जिसे भारतीय जानता पार्टी के नाम से जानते हैं. मैं आपको ले चलूँगा इनके बड़े - बड़े मठाधीशों के पास. आपका हे राम शब्द के साथ अंत हुआ था, इनकी शुरुवात यंही से हुई. वैसे इस बार जब आप आयेंगे तो आपको यंहा राम मिलेंगे नहीं, उनका इनलोगों ने भरपूर प्रयोग कर लिया है जिससे उनका अस्तित्व ही खत्म हो गया है. अब वो भी पत्थरों के सहारे अंध विश्वासी लोगों को विश्वास दिलाते रहते हैं.

अब ज़रा आपके अपने सिद्धांतों का हाल देखिये. आप सत्य की व्यापक खोज में ज़िन्दगी भर स्वयं की गलतियों और खुद पर प्रयोग करते हुए सिखा, आज लोग सत्य से भागने के लिए किसी और पर गलती मढ़ देते हैं. एक आप वकील थे और एक आज के वकील हैं सत्य - असत्य इनकी मुट्ठी में है. अहिंसा और अप्रतिकार बिलकुल नहीं बापू. अब सिर्फ प्रतिकार, विरोध, बदला और हिंसा का ज़माना है. प्रेम आज निष्क्रिय है अत्याचारी ही विजय होते हैं, एक दो नहीं आप आओगे तो देखना यही सिस्टम है यही सच्चाई है. एक आँख के लिए दूसरी आँख दुनिया को अँधा बना तो रही है पर इनका क्या करें बापू ये सारे जन्मजात ही अंधे हैं. आपकी ये पंक्ति अब दूरदर्शी नहीं दिखाई देती लोगों को. आपके आज़ाद भारत में पुलिस जनता की या जनता के लिए नहीं है. पुलिस सरकार की सेवा कर रही है.

इसलिए बापू आना ज़रूर. कई ऐसे भी हैं जो मजबूर हैं जिन्हें आपकी ज़रुरत है. पर किसी अंग्रेजी लिबास में, बिलकुल आक्रामक अंदाज़ में. अब इज्ज़त नहीं डर से काम होगा. जब तक लोग डरेंगे नहीं, इज्ज़त करेंगे नहीं. आपके प्रिय तुलसीदास भी कह गए हैं, "भय बिनु होई न प्रीत".

Sunday, June 26, 2011

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

आपातकाल भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में 21 महीने का वह समय जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान की धारा 352 के अंतर्गत आपातकाल की घोषणा की थी। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में यह सबसे विवादास्पद समय माना जाता है। 1974 में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जयप्रकाश नारायण ने अपना बनवास तोड़कर फिर से लोक मोर्चा की कमान संभाली थी। जेपी ने गुजरात में नौजवानों के आंदोलन को अपना समर्थन दिया तथा उसी तर्ज पर उन्होंने बिहार के नौजवानों को आगे बढ़ने का आह्वान किया था। मई 1974 में भारत के रेल मजदूरों ने जोरदार आंदोलन कर भारत सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी थीं। 1971 के चुनाव में दो-तिहाई बहुमत से जीतने वाली इंदिरा गांधी की सरकार पर चौतरफा हमले शुरू हो गए थे। रायबरेली से 1971 में इंदिरा गांधी के खिलाफ समाजवादी राजनारायण चुनाव तो हार गए थे, लेकिन उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनाव याचिका के जरिए इंदिरा गांधी की जीत को चुनौती दे डाली थी। कांग्रेस पार्टी के लिए वह सबसे बुरे दिनों में से था पर शायद  सही मायने में लोकतंत्र जीत रहा था. 
सत्ता की लालच, अहंकार और कमज़ोर विपक्ष के कारण इंदिरा को इस बात का एहसास तक नहीं था कि वो क्या कर रहीं थी पर समाजवाद के नाम पर लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहे तमाम नेताओं को इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि तानाशाह इंदिरा उनके साथ क्या सलूक कर सकती थी.  इतिहास गवाह रहा है, व्यक्ति और समूह कितना भी शक्तिशाली हो, इतिहास की आंधी से कोई नहीं बच सकता। साधारण व्यक्ति का प्रयास भी चट्टानी सत्ता को धराशायी कर सकता है। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक तरफ जंहा तिनका पहाड़ का रूप ले रहा था इंदिरा और कांग्रेस रुपी पहाड़ अपने पतन की और जा रहे  थे. बगैर किसी परवाह के इंदिरा ने सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रपति और राज्यों के मुख्यमंत्री पद पर अपने सुभचिन्तकों को बैठाना शुरू कर दिया. मजदूर, किसान, युवा सभी सरकार के खिलाफ खड़े होने लगे. एक तरफ जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्त्व में रेलवे के १७ लाख कर्मचारी हड़ताल पर बैठ गए वंही दूसरी तरफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्त्व में बिहार में छात्र आन्दोलन तेजी पकड़ने लगा. जागरूक और साहसी विपक्ष ने इंदिरा गांधी को मजबूर कर गुजरात की विधानसभा भंग कराकर नया जनादेश लाने के लिए बाध्य कर दिया। 12 जून, 1975 को हाईकोर्ट के जज ने अपने ऐतिहासिक फैसले में इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। इस फैसले से पूरे देश में हड़कंप मच गया। इसी बीच गुजरात विधानसभा के चुनाव में जनता मंच को 182 में से 87 सीटों पर जीत मिली। कुछ स्वतंत्र विधायकों को मिलाकर लगभग 100 सीटे कांग्रेस विरोधियों को मिलीं। बौखलाई इंदिरा गांधी ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त जज के यहां अपील कर दी। जज ने सशर्त स्थगन दे दिया। इंदिरा गांधी संसदीय बहस में हिस्सा ले सकती थीं, लेकिन मतदान में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। विपक्ष और पार्टी, दोनों ओर से इंदिरा गांधी के सत्ता छोड़ने की मांग तेज होने लगी। 25 जून को 4 बजे सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी। सभी समाचार माध्यमों, समाचार पत्रों पर सेंसरशिप कानून लागू हो गया। सरकारी खबरों के अलावा कोई खबर जारी नहीं की जा सकती थी। आंतरिक अशांति से निबटने का हवाला देकर आपातकाल लागू कर लोकतंत्र को गिरफ्तार कर लिया गया, मौलिक अधिकार छीन लिए गए । विपक्ष के सभी बड़े नेता गिरफ्तार होने लगे ।
भारतीय राजनीति का यह वो दौर था जब ऊंट दूसरी करवट बैठ रहा था. २३ जनवरी १९७७ को चुनाव की घोषणा हुई. जनता पार्टी ने देशवासियों के बिच प्रचारित किया आम चुनाव के नतीजे ये तय करेंगे की लोकतंत्र या तानाशाही में कौन जीतेगा. नतीजतन, आपातकाल हटने के बाद लोक सभा के हुए चुनाव में  इंदिरा गांधी को हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी ५४२ में से २९५ सीट जीतकर स्पष्ट बहुमत लाने में सफल हुई और आज़ाद भारत में ३० सालों बाद पहली बार कोई गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बना.

Tuesday, March 29, 2011

क्या उम्र मायने रखती है ?????

28 साल का हूँ जब ये याद आया, जब ज़िन्दगी इक और करवट ले रही थी. कुछ और भी थे जिनसे मिलने लगा था, कुछ थे जो छूट रहे थे. पिछले दशक के हर इक के साथ की यादें और हकीक़त को सोच रहा था. वर्षों पुराना इक भाई याद आ गया फिर कुछ सोच रहा था.... लिख रहा था....
क्या वाकई उम्र मायने रखती है ? हम लोग इक दुसरे से अलग सोचते हैं, इक दुसरे को समझने का नजरिया अलग है. स्कूल के दोस्त कॉलेज समय नही थे, कॉलेज के दोस्त अब नही हैं. आज फिर वादा कर रहे उनसे जिनके साथ हैं कि हम दोस्त हैं हमेशा साथ रहेंगे ठीक उसी तरह जैसे स्कूल, कॉलेज के वक़्त किये थे. ज़िन्दगी के हर अगले पड़ाव में लोग इक दुसरे से अलग क्यूँ होते जाते हैं ?
क्यूँ इक ही दोस्त होता है जो हमेशा आपको समझता है और आप उसे? क्यूँ नही हर रिश्ते हर किसी को समझते हैं और हमेशा साथ रहते हैं?
ठीक अभी अभी इक ऐसे दोस्त से मेरी बात हो रही थी जो दशक के शुरुवात में मिला था. मैं उससे ये सवाल नही कर पाया क्युंकि वो इसे समझ नही पाता. वो पत्रकार नही है न तो वो फिल्ममेकर है.  वो सुबह 10 बजे तैयार होकर मुंबई की लोकल में चलता है उसके पास इतनी फुर्सत भी नही है कि वो सोच सके. पर शायद अच्छा है वो ये बौद्धिक जुगाली नही कर सकता. कम से कम इन उलझनों से दूर किसी और उलझन में परेशान तो है.
क्या समय से भी बड़ा कोई है? जब मैं कॉलेज में था तो ज़िन्दगी के मायने कुछ और थे, आज 4 साल बाद मायने बदल गए, नजरिया बदल गया, अपने कुछ जानने वालों को देखता हूँ जो आज भी कॉलेज में हैं वो ठीक उसी तरह हैं जैसे मैं अपने कॉलेज दिनों में था. लगता है वो भी 4-5 सालों बाद वैसे हो जायेंगे जैसा मैं आज हूँ. शायद मेरे पिता या मेरे उन दोस्तों के पिता भी अपने कॉलेज दिनों में वैसे ही रहे होंगे. कॉलेज खत्म होने के 4-5 सालों बाद उनका भी नज़रिया बदला होगा. आज जब वो रिटायर्ड हो गए हैं काफी बदलाव महसूस कर रहे होंगे. शायद मैं नही समझ सकता क्युंकि मैं ना तो समझना चाहता हूँ ना हि समझ सकता हूँ. अब जब शादी होने जा रही है तो इक और बदलाव देख रहा हूं खुद में. और सोच रहा हूँ शायद हमारे बच्चे जब स्कूल में होंगे तब वैसे ही होंगे जैसे हम या हमारे माता - पिता अपने स्कूल दिनों में थे.
हम  हमेशा अपने से छोटे उम्र वालों को समझाते हैं ज़िन्दगी ये नही कुछ और है, पर जब कोई हमसे बड़ा हमें समझाता है तो लगता है कि चीजें वैसी नही है. अगर उम्र मायने नही रखती तो शायद जब हमें बड़े होते हैं तो हमारा नजरिया नही बदलता. सोचिये, क्या ऐसा होता है?????