आपातकाल भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में 21 महीने का वह समय जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान की धारा 352 के अंतर्गत आपातकाल की घोषणा की थी। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में यह सबसे विवादास्पद समय माना जाता है। 1974 में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जयप्रकाश नारायण ने अपना बनवास तोड़कर फिर से लोक मोर्चा की कमान संभाली थी। जेपी ने गुजरात में नौजवानों के आंदोलन को अपना समर्थन दिया तथा उसी तर्ज पर उन्होंने बिहार के नौजवानों को आगे बढ़ने का आह्वान किया था। मई 1974 में भारत के रेल मजदूरों ने जोरदार आंदोलन कर भारत सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी थीं। 1971 के चुनाव में दो-तिहाई बहुमत से जीतने वाली इंदिरा गांधी की सरकार पर चौतरफा हमले शुरू हो गए थे। रायबरेली से 1971 में इंदिरा गांधी के खिलाफ समाजवादी राजनारायण चुनाव तो हार गए थे, लेकिन उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनाव याचिका के जरिए इंदिरा गांधी की जीत को चुनौती दे डाली थी। कांग्रेस पार्टी के लिए वह सबसे बुरे दिनों में से था पर शायद सही मायने में लोकतंत्र जीत रहा था.
सत्ता की लालच, अहंकार और कमज़ोर विपक्ष के कारण इंदिरा को इस बात का एहसास तक नहीं था कि वो क्या कर रहीं थी पर समाजवाद के नाम पर लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहे तमाम नेताओं को इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि तानाशाह इंदिरा उनके साथ क्या सलूक कर सकती थी. इतिहास गवाह रहा है, व्यक्ति और समूह कितना भी शक्तिशाली हो, इतिहास की आंधी से कोई नहीं बच सकता। साधारण व्यक्ति का प्रयास भी चट्टानी सत्ता को धराशायी कर सकता है। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक तरफ जंहा तिनका पहाड़ का रूप ले रहा था इंदिरा और कांग्रेस रुपी पहाड़ अपने पतन की और जा रहे थे. बगैर किसी परवाह के इंदिरा ने सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रपति और राज्यों के मुख्यमंत्री पद पर अपने सुभचिन्तकों को बैठाना शुरू कर दिया. मजदूर, किसान, युवा सभी सरकार के खिलाफ खड़े होने लगे. एक तरफ जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्त्व में रेलवे के १७ लाख कर्मचारी हड़ताल पर बैठ गए वंही दूसरी तरफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्त्व में बिहार में छात्र आन्दोलन तेजी पकड़ने लगा. जागरूक और साहसी विपक्ष ने इंदिरा गांधी को मजबूर कर गुजरात की विधानसभा भंग कराकर नया जनादेश लाने के लिए बाध्य कर दिया। 12 जून, 1975 को हाईकोर्ट के जज ने अपने ऐतिहासिक फैसले में इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। इस फैसले से पूरे देश में हड़कंप मच गया। इसी बीच गुजरात विधानसभा के चुनाव में जनता मंच को 182 में से 87 सीटों पर जीत मिली। कुछ स्वतंत्र विधायकों को मिलाकर लगभग 100 सीटे कांग्रेस विरोधियों को मिलीं। बौखलाई इंदिरा गांधी ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त जज के यहां अपील कर दी। जज ने सशर्त स्थगन दे दिया। इंदिरा गांधी संसदीय बहस में हिस्सा ले सकती थीं, लेकिन मतदान में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। विपक्ष और पार्टी, दोनों ओर से इंदिरा गांधी के सत्ता छोड़ने की मांग तेज होने लगी। 25 जून को 4 बजे सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी। सभी समाचार माध्यमों, समाचार पत्रों पर सेंसरशिप कानून लागू हो गया। सरकारी खबरों के अलावा कोई खबर जारी नहीं की जा सकती थी। आंतरिक अशांति से निबटने का हवाला देकर आपातकाल लागू कर लोकतंत्र को गिरफ्तार कर लिया गया, मौलिक अधिकार छीन लिए गए । विपक्ष के सभी बड़े नेता गिरफ्तार होने लगे ।
भारतीय राजनीति का यह वो दौर था जब ऊंट दूसरी करवट बैठ रहा था. २३ जनवरी १९७७ को चुनाव की घोषणा हुई. जनता पार्टी ने देशवासियों के बिच प्रचारित किया आम चुनाव के नतीजे ये तय करेंगे की लोकतंत्र या तानाशाही में कौन जीतेगा. नतीजतन, आपातकाल हटने के बाद लोक सभा के हुए चुनाव में इंदिरा गांधी को हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी ५४२ में से २९५ सीट जीतकर स्पष्ट बहुमत लाने में सफल हुई और आज़ाद भारत में ३० सालों बाद पहली बार कोई गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बना.
सत्ता की लालच, अहंकार और कमज़ोर विपक्ष के कारण इंदिरा को इस बात का एहसास तक नहीं था कि वो क्या कर रहीं थी पर समाजवाद के नाम पर लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहे तमाम नेताओं को इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि तानाशाह इंदिरा उनके साथ क्या सलूक कर सकती थी. इतिहास गवाह रहा है, व्यक्ति और समूह कितना भी शक्तिशाली हो, इतिहास की आंधी से कोई नहीं बच सकता। साधारण व्यक्ति का प्रयास भी चट्टानी सत्ता को धराशायी कर सकता है। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक तरफ जंहा तिनका पहाड़ का रूप ले रहा था इंदिरा और कांग्रेस रुपी पहाड़ अपने पतन की और जा रहे थे. बगैर किसी परवाह के इंदिरा ने सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रपति और राज्यों के मुख्यमंत्री पद पर अपने सुभचिन्तकों को बैठाना शुरू कर दिया. मजदूर, किसान, युवा सभी सरकार के खिलाफ खड़े होने लगे. एक तरफ जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्त्व में रेलवे के १७ लाख कर्मचारी हड़ताल पर बैठ गए वंही दूसरी तरफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्त्व में बिहार में छात्र आन्दोलन तेजी पकड़ने लगा. जागरूक और साहसी विपक्ष ने इंदिरा गांधी को मजबूर कर गुजरात की विधानसभा भंग कराकर नया जनादेश लाने के लिए बाध्य कर दिया। 12 जून, 1975 को हाईकोर्ट के जज ने अपने ऐतिहासिक फैसले में इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। इस फैसले से पूरे देश में हड़कंप मच गया। इसी बीच गुजरात विधानसभा के चुनाव में जनता मंच को 182 में से 87 सीटों पर जीत मिली। कुछ स्वतंत्र विधायकों को मिलाकर लगभग 100 सीटे कांग्रेस विरोधियों को मिलीं। बौखलाई इंदिरा गांधी ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त जज के यहां अपील कर दी। जज ने सशर्त स्थगन दे दिया। इंदिरा गांधी संसदीय बहस में हिस्सा ले सकती थीं, लेकिन मतदान में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। विपक्ष और पार्टी, दोनों ओर से इंदिरा गांधी के सत्ता छोड़ने की मांग तेज होने लगी। 25 जून को 4 बजे सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी। सभी समाचार माध्यमों, समाचार पत्रों पर सेंसरशिप कानून लागू हो गया। सरकारी खबरों के अलावा कोई खबर जारी नहीं की जा सकती थी। आंतरिक अशांति से निबटने का हवाला देकर आपातकाल लागू कर लोकतंत्र को गिरफ्तार कर लिया गया, मौलिक अधिकार छीन लिए गए । विपक्ष के सभी बड़े नेता गिरफ्तार होने लगे ।
भारतीय राजनीति का यह वो दौर था जब ऊंट दूसरी करवट बैठ रहा था. २३ जनवरी १९७७ को चुनाव की घोषणा हुई. जनता पार्टी ने देशवासियों के बिच प्रचारित किया आम चुनाव के नतीजे ये तय करेंगे की लोकतंत्र या तानाशाही में कौन जीतेगा. नतीजतन, आपातकाल हटने के बाद लोक सभा के हुए चुनाव में इंदिरा गांधी को हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी ५४२ में से २९५ सीट जीतकर स्पष्ट बहुमत लाने में सफल हुई और आज़ाद भारत में ३० सालों बाद पहली बार कोई गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बना.
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