Sunday, August 4, 2013

रिश्तों की ये डोर बस चलती रहे, ताउम्र


मेरे लिए दोस्ती थोड़ी अलग थी. शायद, यही वजह है कि मैं कभी डरा नहीं। लेकिन आज जब सारे दोस्तों से दूर अपने घर पर हूँ तो उनकी बहुत याद आती है. ऐसा नहीं है कि आज दोस्ती दिवस है इसलिए, बल्कि इसलिए कि अब आज़ाद नहीं हूँ . कुछ रिश्तों की मजबूरियाँ होती है. मसलन माता-पिता, पत्नी, बच्चे, भाई-बहन व् अन्य रिश्तेदार। ये वो रिश्ते हैं जिन्हें हम चाह कर भी खुद से दूर नहीं कर सकते. वहीं दोस्त हम खुद बनाते है, खुद निभाते हैं. यही कारण है कि दोस्ती हर रिश्ते से खाश हो जाता है. 
मेरा बचपन, युवावस्था घर से दूर दोस्तों के साथ बीता { मैं अनुशाषित नहीं हूँ इसका एक कारण ये भी है }. और मैं ख़ुशनसीब हूँ कि मुझे एक-दो नहीं बल्कि दर्जनों ऐसे दोस्त मिले जिन्होंने मुझे अपने दिल के सबसे करीब रखा, मेरे आत्म-सम्मान को कभी चोट नहीं पहुँचाया और सबसे बड़ी बात उन्होंने कई बार  गैर-वक़्त में मुझे कभी घर की कमी मह्शूश नहीं होने दिया. ऐसे ही कुछ संस्मरण के साथ मेरे प्यारे दोस्तों को मेरा ढेर सारा प्यार और शुभ कामनाएँ . 

अंजू सिंह सेंगर : मेरी पहली दोस्त जिसने मुझे समझाया एक लड़का और एक लड़की भी दोस्त हो सकते हैं. बगोदर में हमारे वो दो साल रिश्तों के रोमांच की वो पहली बारिश थी. 

साकेत सिंह : शुक्रिया मेरे भाई तुमने मुझे जिंदादिल, निडर और चालाक बनाया। पटना में तुम्हारे साथ ( सुधीर, अजय और अन्य ) बिताए वो दो साल काफी रोमांचक रहे. और वो बुनियाद आज तक जारी है. 

प्रकाश : हमारे रिश्ते को क्या नाम दूं मुझे नहीं मालूम, लेकिन तब यह दोस्ती से भी ऊपर था. 1998 से लेकर 2013 तक भी यह वैसा ही है. इसलिए शुक्रिया क्यूंकि ये आपकी वजह से है. 

आशीष तिवारी : मेरा पहला दोस्त जो मुझे बिहार से बाहर मिला. रायपुर में तुम्हारे साथ बिताये उन पलों को याद कर मैं शिहर उठता हूँ . इतने कम समय में हमने कितनी ज़िन्दगी वहां जी है वो सिर्फ मैं और तुम समझ सकते हैं . तुम्हारी ऊर्जा असीमित है, इसे बरकरार रखना और लड़ाई जारी रखना। 

मिसेज बोथरा : मैं तुम्हे भले ही छोटी कहकर बुलाता हूँ लेकिन तुम घर से दूर मेरी मां की तरह थी . तुम करोड़ों में एक हो, न सिर्फ मेरे लिए बल्कि अपने हर दोस्तों के लिए. मुझे बहुत खुशी मिलती है जब हर कोई तुम्हारी तारीफ़ करता है. 

मदीहा हसन : क्या कहूँ ? मेरी खुश नसीबी थी कि हमलोग रायपुर से लखनऊ शिफ्ट हुए. वंहा मुझे तुम मिलीं। तुमने मुझे जीना सिखाया, बोलना सिखाया। आज भी मैं जब मुसीबत में होता हूँ तो तुम याद आती हो. मैं तुम्हारी दोस्ती के लायक नहीं था फिर भी मेरे कुछ अच्छे करम होंगे कि तुमने मुझपर यकीन किया। मुझे आज भी इस बात पर गर्व होता है कि मैंने तुम्हारे नज़रिए को एक हद तक गलत साबित किया ( बिहारियों को लेकर ).  अपना ख़्याल रखना और अपने मियाँ का भी :) 

शिंजिनी  सिंह : वो लगभग तीन साल. मैं, तुम और हमारा नज़रिया . अगर तुम न मिलती तो शायद मैं सामाजिक न्याय को लेकर आज भी लड़ नहीं रहा होता। मैं भी किसी कंपनी का पट्टा अपने गले में टांगकर शहर की अंधी - बेमंजिल दौड़ में शामिल होता। तुम्हारे कारण मैं थोड़ी बहुत अंग्रेजी समझ पाया और शायद मेरी वजह से तुम हिंदी। ज़िन्दगी में ज़्यादातर लोगों को ऐसा मौका कम ही मिलता है कि उनके पास तुम्हारे जैसा दोस्त हो . मुझे गर्व है कि मुझे ये मौक़ा मिला। और खुश हूँ कि इस साल मुझे तुम्हारे साथ रहने का एक और मौका मिलने जा रहा है.  

हर्षिता तलवार (मिसेज उप्पल) : थोड़ी सी हंसी, थोडा सा गुस्सा और ढेर सारी शरारतें। यक़ीनन तुम त्रिमूर्ति का साथ वो भी एक साथ और मुझ जैसे जाहिल गंवार को. ख़ुशी होती है यह जानकार कि तुम आज भी वैसी ही हो. बस ऐसी ही रहना। 

आशीष दीक्षित : मेरा भाई, मेरी माशूका, मेरी जान तुम बहुत याद आते हो. मैं जब जब रोता हूँ तो तेरी बहुत याद आती है, लगता है काश तुम साथ होते, मुझे समझाते, डाँटते। तुम साथ नहीं हो तो लगता है कि अकेलापन क्या होता है. तुमने मुझपर जो यकीन इतने वर्षों से दिखाया है मैं उसे जाया नहीं होने दूंगा मेरे भाई. बस किसी तरह मेरी ज़िन्दगी में लौट आओ. 

विष्णु कटारा : दोस्त तुम अलग हो. और सबसे खाश बात यह है कि तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है जिसमे मुझ जैसे कई दोस्तों के लिए अथाह जगह है. तुम प्राईसलेस हो. तुम्हारे दिल के करीब रहना बहुद ही सुखद अनुभव रहा है और उम्मीद करते हैं आगे भी रहेगा। तुम्हारा असाधारण व्यक्तित्व और साधारण व्यवहार आज के दौर में प्रासंगिक नहीं है लेकिन यह बेहतरीन है और इसे जाने मत देना।  
फीलिप्स : अगर तुम न होती तो शायद मैं ये लड़ाई हार चुका होता। नोयडा में तम्हारा साथ वो भी मेरे सबसे मुश्किल वक़्त में वाकई सिर्फ तुम दे सकती थी. ज़िन्दगी में तुमने मुझसे ज्यादा उतार चढ़ाव देखे हैं, तुम आज भी किस्मत से लड़ रही हो और यकीन रखना मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ. 

शशिकान्त : ज़िन्दगी के मध्य में तुम्हारा लम्बा साथ मुझे आज भी अपने सपनों के लिए प्रेरित करता है . जाने अनजाने तुम कई भूल करते रहे फिर भी हम साथ हैं, ये सब कुछ तुम्हारे प्रयासों का नतीजा है. मोड़ पर रोशनी है, ज़रुरत बस चलते रहने की है. यूँ ही चलते रहो. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ. 

प्रखर सिंह : कॉलेज दिनों में हम दोस्त रहे न रहे, लेकिन वक़्त ने हमें दोस्त बना ही दिया। तुम्हारा घर के प्रति प्यार, अपनो के साथ हमेशा खड़े रहने की सोच और नशे से दूरी तुम्हे एक अलग लीग में खड़ा करता है. अखबार के दौरान तुम्हारा साथ (व्यक्तिगत) मिला इसके लिए शुक्रिया। हम हमेशा साथ रहेंगे तबतक, जबतक हमारी मंजिल न मिल जाए. तुम इकलौते  दोस्त हो जो मेरी सोच के समकक्ष मेरा साथ निभाते हो और यही हमारी नजदीकियों का सबसे अहम् कारण  है. मैंने तुमसे बहुत कुछ सिखा है, उम्मीद करता हूँ ये सिलसिला जारी रहेगा। 

अतुल शंकर राय : अतुल भैया आप करोड़ों में एक हैं. हम सब की खुशनसीबी है कि  हम आपके दोस्तों की लिस्ट में हैं. आप एक बेहतरीन और नेकदिल इंसान हैं इसलिए सिर्फ आपसे उम्मीद करता हूँ कि  बस ऐसे ही रहिए। समाज और देश को आपकी ज़रुरत है. आपकी निडर सोच हम सबको हौंसला देती है. हमारा हर सपना पूरा होगा जो हमने बम्बई से लेकर दिल्ली और लखनऊ की गलियों में देखा था बस यूँ ही स्पोर्टी बने रहिये। आपका असाधारण व्यक्तित्व और साधारण व्यवहार आज के दौर में प्रासंगिक नहीं है फिर भी आपकी जवाबदेही आपको ऐसे ही बने रहने को मजबूर कराती है जो इंसानियत के लिए एक बेहतरीन तोहफा है. आपके होने का एक खाश मकसद है इसे ताउम्र म्हणत कर साबित करते रहना होगा। 

कारू सक्सेना : हम यूँ मिले तो पहले ही थे लेकिन अब जाना हममे कॉमन क्या था. हम दोस्त अब बने हैं लेकिन शायद हमें पहले होना था. उम्मीद करते हैं ज़िन्दगी में कई बेहतरीन मौके आयेंगे। 

आप सबों के अलावा कई और भी हैं जिनके साथ बेहतरीन वक़्त गुजरा। हमेशा साथ मिला। प्यार मिला। और आज भी सबकुछ वैसा ही है जैसा था. सोभित निगम भाई, हेमेन्द्र धर, अमित शर्मा, संदीप पाण्डेय, प्रितपाल, कृति गुप्ता, निधी, नम्रता, ईशा, अखिलेश भाई, राहुल पाण्डेय, नितेश सिंह, निशांत, के पी मौर्य और कई अन्य आप सबों को ढेर सारा प्यार और दोस्ती दिवस की सुभ कामनाएं .… 
आपका 
प्रेम सागर 

Friday, June 28, 2013

Solar means Energy Democracy

Climate change, resource depletion and energy security
Energy and climate change are two of the issues that will dominate the next century. Right now we need solutions that can help us address both issues at once, whilst allowing our communities to thrive. There are not many places to turn for answers to these challenges and in the India we are currently being Victimized for our energy need by Systems and Governments. When many other industrialized nations like Germany are abandoning this technology to focus on a 100% renewable future.
We need solar not just because we don’t have many options left – but because there are so many positives.
Solar means an infinite clean, green energy resource
  • Every hour enough solar energy lands on the earth to power the whole of mankind’s energy needs for a year.
  • Solar photovoltaic (PV) is a reliable technology that produces zero carbon electricity for up to 50 years.
  • Solar energy provides protection against rapidly rising oil and gas prices.
  • The costs of solar PV is falling rapidly.
  • Solar PV is completely safe – it does not even have moving parts.
  • Nuclear power is expensive and there is currently no solution to disposal of highly toxic nuclear waste.
  • Solar PV is a socially acceptable technology with widespread application
  • It is modular and equally effective whether deployed on a small or large scale.
  • Solar PV is easily deploy-able NOW in large volumes.
  • Solar PV provides benefits for businesses, individuals and communities.
  • People actually like solar PV – and want to use it.
  • We can provide clean green solar energy for years to come.
Solar means Energy Democracy
PV allows us to democratise energy and distribute access to energy more fairly. You and your roof become a power station, and you are less reliant on highly inefficient and polluting central power stations.
Solar PV technology will help us to break away from dependence on a finite and increasingly dangerous fuel resource – and fast!

Friday, July 27, 2012

ख़त्म होने लगी हाथियों के 'कॉरिडोर'

जैसे जैसे समाज का विकास होता गया.... मनुष्यों ने खुद को जीवित रखने के लिए प्रकृति और जानवरों का खूब दोहन किया..... अपने स्वार्थ के लिए इंसानों की यही भूल..... आज उन्हीं के सामने मौत बनकर खड़ी है..... लेकिन अफ़सोस यह है कि इनसे बचने के लिए इंसान फिर से वही भूल कर रहे हैं.... जो वो सदियों से करते आए हैं..... वनों की अंधाधुंध कटाई और जंगलों पर इंसान का कब्ज़ा हाथियों के लिए मुसीबत बन गई..... हाथियों के 'कॉरिडोर' में खेती होने लगी...... और वक़्त के साथ हाथियों को हत्यारा कहा जाने लगा.... लेकिन ज़रा सोचिये पहली गलती किसकी है..... इंसानों की या हाथियों की ? एक वक़्त था जब एशियाई हाथी भारत के विशाल जंगलों में बेरोक-टोक घूमा करते थे...... लेकिन वनों की अंधाधुंध कटाई और जंगलों में इंसानों की घुसपैठ ने हाथियों के निवास को लगातार संकुचित कर दिया..... पिछले साल, देश भर में करीब 5,872.18 हेक्टेयर जंगल खत्म कर दिए गए और इस साल भी जंगल पर हमला जारी है........ जिससे हाथी उत्तराखंड, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, झारखण्ड और ओडिशा के जंगलों में बेबस हो गए हैं...... दरअसल, 1999 तक हाथियों के विचरण करने का इलाका यानी 'कॉरिडोर' सुरक्षित था.... जहाँ से हाथियों के झुंड दूसरे राज्यों के जंगलों में जाया करते थे और फिर उसी रास्ते वापस अपने जंगल में आ जाते थे...... लेकिन, आबादी बढ़ी..... तो जंगल और ज्यादा कटे.... और परिणाम यह हुआ कि हाथियों के 'कॉरिडोर' में भी खेती होने लगी........  यही कारण है कि हाथियों के झुंड जब उस रास्ते से गुजरते हैं तो उन खेतों और रिहायशों की सहमत आ जाती है..... लोग, एक गाँव से हाथियों के झुंड को भगाते हैं... और झुंड दूसरे गाँव में घुस जाता है..... अलबत्ता, हाथी एक गाँव से दूसरे गाँव तक सिर्फ भगाए जा रहे हैं.....  वहीं, दिन भर कड़ी मेहनत, रात भर मशाल जला कर रतजगा और हर समय खौफ़, शायद यही लोगों की नियति बन गई है..... हाथी और इंसान की कहानी में आज अपना-अपना पेट पालने के लिए  दोनों एक-दूसरे के विरोधी हो गए हैं...... पहले इंसानों ने हैवानियत का परिचय देते हुए हाथियों को परेशान किया..... उनका और उनके बाल बच्चों का शिकार किया... फ़िर अब हाथी अगर, हमला कर रहे हैं तो इंसान परेशान हो रहे हैं... अब सवाल यह है कि आखिर गलती किसकी है.....? हाथी जाएं तो जाएं कहां...?  हाथियों के रहने और विचरण की जगह घटती जा रही है ..... जंगल और पानी के स्रोत सिकुड़ते जा रहे हैं.... तो जाहिर है कि भोजन और पानी की तलाश में हाथी, आबादी वाले क्षेत्रों में आएंगे .......... वन्य जीव विशेषज्ञों ने जंगली हाथियों को दूर रखने के लिए तार लगाने, मिर्ची बम प्रणाली स्थापित करने, करंट वाली बाड़ों का इस्तेमाल करने जैसे अस्थायी उपायों पर काम ज़रूर किया है.... लेकिन सरकार और वन्य जीव विशेषज्ञ हाथियों को बचाने और पानी तथा जंगल पर उन्हें अधिकार वापस दिलाने की कोई भी योजना नहीं बना पाए हैं.....

क्या है हिग्स बोसन...?

माना जाता है कि भगवान कण-कण में बसते हैं.... और उन्हीं कणों से मिलकर ब्रह्मांड की उत्पत्ति  हुई है......  शायद इसलिए, सबसे सूक्ष्म भौतिक कण में सबसे विराट आध्यात्मिक शक्ति की खोज हो रही है.... यही मान्यता है जिसके कारण, वैज्ञानिक हिग्स बोसन को ब्रह्मकण या ईश कण अथवा गॉड पार्टिकल कह रहे हैं.... क्या है हिग्स बोसन......? पार्टिकल फिजिक्स के अनुसार हिग्स बोसन वो कण हैं जो सब-एटॉमिक यानी परमाणविक जगत को मास यानी द्रव्यमान देते हैं..... यानी, अगर ये कण न हों, तो विज्ञान 'द्रव्य' की व्याख्या नहीं कर सकता..... नियम यह है कि अगर यह द्रव्यमान नहीं होगा तो किसी भी चीज के परमाणु उसके भीतर घूमते रहेंगे और आपस में जुड़ेंगे ही नहीं.... हिग्स बोसन के अनुसार, हर खाली जगह में एक फील्ड है.... साइंटिस्ट इसे हीग्स फिल्ड कहते हैं.... इसी फील्ड में हिग्स बोसन किसी अणु को भार प्रदान करते हैं..... लेकिन.... हिग्स बोसन की अहमियत क्या है....? फिलहाल हिग्स बोसन से भविष्य का कयास ही लगाया जा रहा है... लेकिन, अगर ये सच है तो इससे, इंटरनेट की स्पीड कई गुना बढ़ जाएगी.... जिससे संचार क्रांति की दुनिया में कई महत्वपूर्ण  बदलाव आएंगे...., नैनो तकनीक में क्रांति आएगी.... जिससे एमआरआई और पीईटी स्कैन में हमें मदद मिलेगी.... वहीं, अन्तरिक्ष प्रोद्योगिकी  को और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकेगा... संभव है कि हिग्स बोसन की मदद से भविष्य में अन्य ग्रहों के गूढ़ रहस्य से भी पर्दा उठ सके.....
1920 के दशक में भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस ने अल्बर्ट आइंस्टीन के साथ इस तरह के भौतिक कणों की अवधारणा बनाई थी ..... उसके बाद 1964 में, स्कॉटलैंड के पहाड़ों में घूमते हुए ब्रिटिश भौतिक शास्त्री पीटर हिग्स ने एक ऐसे फील्ड की कल्पना की जो भारी कणों से युक्त हो..... फिर, करीब आठ साल पहले 2004 में ब्रिटेन स्थित बुकमेकर लैडब्रुक्स ने पांच भावी आविष्कारों पर अटकलें लगाईं... मसलन, मंगल के सबसे बड़े चन्द्रमा यानी टाइटन पर जीवन की उपस्थिति, गुरुत्वाकर्षण तरंगों का अस्तित्व, अंतरिक्ष से आती कॉस्मिक किरणों के स्रोत की जानकारी, परमाणु संलयन का व्यावसायिक उपयोग और हिग्स बोसन का रहस्य...... इनमें से चार पर अभी कुछ भी कहना शेष है... लेकिन जिनेवा स्थित "द यूरोपियन ऑर्गनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च" यानी सर्न प्रयोगशाला ने हिग्स बोसन के रहस्य से पर्दा उठा दिया है.... ब्रह्मांड के सबसे सूक्ष्म पार्टिकल की खोज में, "सर्न" ने फ़्रांस और स्विट्ज़रलैंड की सीमा पर प्रोटोन की टकराहट के लिए 27 किमी लम्बी, छल्लेदार सुरंग बनाई..... तकरीबन 500 अरब रुपये की लागत से हुए इस महाप्रयोग में 9300 चुम्बकों को 271.3 डिग्री सेल्सियस के तापमान में, प्रति सेकेण्ड 4 करोड़ प्रोटोनों से टकराया गया.... प्रोटोनों की टकराहट से पैदा हुए आंकड़ों में से 20 फ़ीसदी विश्लेषण सर्न ने किया.... और बाकी के 80 प्रतिशत आंकड़ों का विश्लेषण दुनिया के अन्य संस्थानों में भेजे गए.... और आखिरकार, हमें उस रहस्य का राज़ मिल गया.... जिसमें ब्रह्मांड का सच छुपा है..... लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि गॉड पार्टिकल यानी ईश कण या ब्रह्म कण की खोज से मानवता को क्या मिलने जा रहा है..... ?????

Friday, June 29, 2012

विपक्ष या शासक

शहर से सड़क तक....
सफ़र से मंजिल तक ......
आसमान जैसा बड़ा.... 
या पैसे जैसा छोटा......

कौन हूं मैं.....??????
भीड़ में चलता एक आम आदमी.... या, बुलंदियों पर बैठा एक खाश आदमी....
माचिस की तीली जैसी कोशिश 
या फिर
हारा हुआ एक शख्श 

इस दौड़ती-भागती दुनिया में एक अपने हिस्से की ज़िन्दगी जीता एक रिश्ता  
या सिर्फ एक किस्मत ???
कौन हूं मैं.... ??

रेत से खेलता एक बच्चा 
या 
मकसद से लड़ता एक खिलाडी....

दिल के बहाने हँसता एक शायर 
या 
दुनिया के बहाने हँसने का नाटक करता एक कलाकार....

सच को समझता एक इंसान 
या 
मात्र, झूठ में जीता एक नागरिक
कौन हूं मैं?

दर्पण से कल्पना को समझता हुआ...
या 
किताबों से सफलता को नापता हुआ
कौन हूं मैं????

चाहरदीवारी में मजबूर
या
मोहल्ले का हीरो 

एक सवाल
या 
एक जज 

विपक्ष 
या 
शासक 
कौन हूं मैं....??????

Saturday, June 23, 2012

भविष्य हम जैसा चाहते हैं.... और उसे कैसे साकार करें.... इसी मकसद से ब्राज़ील के शहर "रियो डि जेनेरियो" में रियो+20 सम्मेलन का आयोजन किया गया.....  20 से 22 जून तक चले इस सम्मलेन के घोषणापत्र में भारत की चिंताएं साफ़ झलकती हैं.... जिसमें कहा गया है कि विकासशील देशों को सतत विकास के लिए और संसाधनों की जरूरत है... साथ ही, आधिकारिक विकास सहायता यानी ओडीए एवं वित्त व्यवस्था पर अवांछित शर्तों से बचना चाहिए.... भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शिखरवार्ता के दौरान अपने संबोधन में कहा कि अगर अतिरिक्त धन और तकनीक उपलब्ध हुई तो विश्व के कई देश अधिक विकास  कर सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इन क्षेत्रों में औद्योगिक देशों से समर्थन कम होता है...... भारतीय प्रधानमंत्री ने विश्व समुदाय को ज़िम्मेदारी का अहसास कराते हुए कहा कि यह वैश्विक समुदाय की जिम्मेदारी है कि सम्मलेन को कैसे व्यावहारिक स्वरूप दिया जाय..... ताकि प्रत्येक देश अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप विकास करे.......  
वर्ष 1992 में रिओ-डी-जेनेरियो में पर्यावरण की रक्षा के लिए  'पृथ्वी सम्मेलन' हुआ था...... इस सम्मेलन के बाद 1997 में क्योटो संधि की शर्तें सामने आईं..... अलबत्ता, क्योटो संधि की शर्तों पर सख्ती से अमल की उत्सुकता किसी देश ने नहीं दिखाई..... सबसे बड़ा ग्रीन-हाउस गैस उत्सर्जक देश अमेरिका ने इस संधि से खुद को बाहर ही रखा...... और क्योटो संधि एक मखौल बनकर रह गई....... क्योटो के बाद 2007 में बाली में संपन्न बैठक भी बेअसर रही...... उसके बाद, संयुक्त राष्ट्र के बुलावे पर कोपनहेगन सम्मलेन क्योटो शर्तों की नाकामी को खत्म करने की एक उम्मीद के रूप में देखी गई..... लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात.... वहीं, अपने स्वार्थों को पर्यावरण से ज्यादा अहमियत देने वाला अमेरिका एक बार फिर रियो प्लस ट्वेंटी से बाहर है...... अब देखना यह है कि अमेरिका की गैरमौजूदगी में भारत, ब्राज़ील, चीन, दक्षिण अफ्रीका जैसे देश प्रकृति को बचाने के लिए रियो+20 सम्मेलन को कैसे साकार करते हैं..... 
पिछले दो दशक में पर्यावरण को बचाने के लिए विश्व के ज़्यादातर देश एक मंच पर ज़रूर आए..... लेकिन अमेरिका की हठधर्मी के कारण पर्यावरण और विकास के बीच का हल नहीं निकला..... पर्यावरण बचाने की ये मुहिम 20 वर्षों में रियो से चलकर क्योटो, बाली, कोपनहेगन और फिर वापस  रियो तक आ गई..... फिर भी भविष्य हम जैसा चाहते हैं... उसपर संशय बरकरार है....

Wednesday, February 15, 2012

इतिहास की उलझन में "गांधी" और इसमें हमारा भविष्य

60 साल के बजाय अगर पिछले 70 सालों को लें तो भारतीय राजनीतिक और सामाजिक इतिहास में "गांधी" शब्द से बड़ा कोई और शब्द नहीं दिखता. लेकिन ये दौर फेसबुक, गूगल का है. फिलहाल गांधी कागज और कम्पूटर की दिवार पर चिपके मिलते हैं, इसलिए ज़रूरी नहीं है कि "गांधी" जीतेगा. दलदल में फंसे वर्तमान को अगर बेहतर बनाना है तो फिर से "सम्पूर्ण क्रांति" लानी होगी. यह तय करना होगा कि अब क्या करना है? इसमे दिलचस्प होगा कि नव उदारवाद के दौर में "जेपी" कौन होगा?  
हर वो सख्श जो कहता था दरियादिली की बात आज कठघरे में खड़ा मुस्कुरा रहा है....
मैं कुछ दिनों से गांधी और गोडसे के बारे मैं पढ़ रहा हूं, इतिहास मैं उलझनें बहुत हैं शायद यही वह वजह है कि कभी गांधी हिरो दिखते हैं तो कभी पक्षपात से ग्रसित एक राजनेता जो जानता है कि इमानदारी और हिम्मत को कैसे मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता है. गोडसे संघ की चारदीवारी से बाहर रावण की भूमिका में है. कुछ जगहों पर मिलता है कि भारत में उस वक़्त की राजनीति में ४ मुख्य चेहरे थे. पहला, जवाहरलाल नेहरु जिनकी विचारधारा क्या थी पता नहीं चल पाता. वो क्या चाहते थे, किसके थे, किसके लिए थे वगैरह - वगैरह..  दूसरा, बाबासाहेब जिन्हें उस वक़्त समाज में प्रेरणाश्रोत बनना था, वो दलित उत्थान की बात कर हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़ा बैठे. उसी वक़्त गोडसे कुछ उन चन्द लोगों में से थे जो हिन्दुओं को जोड़ने और बचाने में परेशान थे. और चौथे थे गांधी (मोहनदास करम चन्द गांधी). वैसे तो देश गाँधी का था लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है कि उस वक़्त की राजनीति ये चाहती थी कि गांधी ना रहें. गांधी पर एक सप्ताह पहले भी हमला हो चुका था फिर भी उनकी सुरक्षा का बंदोबस्त क्यूँ नहीं हुआ इसका जिक्र कहीं नहीं मिलता. गांधी हत्या की नैतिक ज़िम्मेदारी जवाहरलाल नहीं लेते हैं. मैं ये बिलकुल नहीं मानता कि गोडसे ने सही किया. लेकिन गलती गोडसे कि थी मैं ये भी नहीं मानता. मुझे लगता है गांधी खुद अपनी हत्या के ज़िम्मेदार थे, और दूसरी गलती नेहरु की थी. गांधी की हत्या के पीछे उनका मुस्लिम प्रेम था जिसका जिक्र कई जगह पर मिलता है. भाईचारा और इंसानियत का पाठ पढ़ाने वाले गांधी खुद इन्हीं वजहों से कठघरे में दिखते हैं. लोकतंत्र में हिंसक रवैया अपनाने वाले गोडसे भी कठघरे में दिखते हैं. नेहरु, बाबासाहेब, बल्लभ भाई पटेल सभी कंही न कंही वर्तमान भारत की दशा के लिए कठघरे में दिखते हैं. और सबसे बड़ा गुनहगार वो शब्द "गांधी" दिखता है जो कईयों को तोहफ़े में आजीवन मिला है. 
इतिहास में कई और उलझनें भी हैं, कहीं कहीं ये उल्लेख भी मिलता है कि नेहरु परिवार मुस्लिम से हिन्दू परिवर्तित है. जो मूलतः कश्मीर के थे और आगरा में बस चुके थे. इसे पिछले ६ दशकों में दबी कुचली ज़बान से बोला गया है. गोडसे में हैदराबाद के निजाम की वजह से मुस्लिम विरोध दिखता है जिससे आहत वो गांधी की हत्या कर बैठते हैं. बाबासाहेब  आज भी जिंदा दिखते हैं जब मायावती, मंडल और वामपंथी धडा अपनी राग अलापता है. और गांधी इस देश में सदैव ज़िंदा रहेंगे जिसका अनुमान भी इतिहास के इन्हीं पन्नों में मिलता है. नेहरु और गांधी की उपज इंदिरा थोड़ी सशक्त और जिंदादिल ज़रूर दिखती हैं लेकिन ये देश उनकी जागीर थी यह समझने की भूल वह भी कर बैठती हैं. राजीव, राहुल फ़िरोज़ गांधी के वंशज हैं लेकिन इतिहास उन्हें नेहरु के साथ देखता है. सोनिया भारत की हैं इसे लोकतंत्र तो मानता है लेकिन जनमानस नहीं. इतिहासकार और उस वक़्त के कई लेखक जिनके शब्द हमतक पहुँचते हैं उनकी बातें कुछ और होती हैं.  उनकी जीवनशैली, प्रतिष्ठा और नज़रंदाज़ी इतिहास के पन्नों में उलझन डालती है लेकिन जिन लेखकों की आवाज़ हम तक नहीं पहुच पायी इतिहास में वो आज भी नगण्य हैं. 
 ये उलझन आज़ादी की नीवं को कमज़ोर बनाती है इसलिए ज़रूरी नहीं है कि "गांधी" जीतेगा. दलदल में फंसे वर्तमान को अगर बेहतर बनाना है तो फिर से "सम्पूर्ण क्रांति" लानी होगी. सब कुछ फिर से बदलना होगा. यह तय करना होगा कि अब क्या करना है? इसमे दिलचस्प होगा कि नव उदारवाद के दौर में "जेपी" कौन होगा?