Thursday, July 7, 2011

आधी आज़ादी


कहते हैं कि एक कोस पर पानी और चार कोस पर बानी बदल जाता है. गाँव की यह कहावत नव उदारवाद युग के विकास में चरितार्थ होने लगा है. भट्टा परसौल भले ही इसका ताज़ा उदहारण हो लेकिन अगर गुजरे वक़्त को देखें तो कई ऐसी घटनाएँ दिखती हैं जिसने उदारवाद के बहाने लोगों को अपने मूल से अलग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. अगर इस पूरे प्रक्रिया में किसी का नुकसान होता है तो वह सिर्फ और सिर्फ किसान हैं जो ज़्यादातर अशिक्षित हैं और आर्थिक युग में पैसे से कमज़ोर हैं. विकास के नाम पर इन्हें इनकी ज़मीन के बदले पैसे दे दिए जाते हैं और उन ज़मीनों पर उद्योगों को स्थापित किया जाता है. उपरी तौर पर देखा जाय तो किसानो को ज़मीन के बदले पैसे भी मिल जाते हैं और विकास भी होता है जो वैश्विक स्तर पर सही भी है, पर मूल रूप से कटते किसान के हालात ज्यों के त्यों बने रहते हैं. समय के साथ ना इनके पास ज़मीन बचती है ना विकसित राष्ट्र का हिस्सा बन पाते हैं. हाँ, इस दौरान आत्मविहीन राजनीति अपना फायदा ज़रूर निकाल लेती है. चाहे सिंगूर हो, विदर्भ हो, बुंदेलखंड हो, मेवात हो या फिर भट्टा परसौल हो, हाई  एक्शन मेलोड्रामा वाली इन फिल्मों का प्लाट लगभग एक ही है. उद्योगपति सरकार या फिर सबंधित मंत्रियों को पैसा देती है और फिर विकास के नाम पर हमेशा से किसान लूटते रहे हैं. बेशर्म राजनेता हर और से सिर्फ अपने फायदे की जुगत में लगे रहते हैं.

सन 1527 में बाबर के खिला़फ ल़डते हुए एक ही दिन में 12 हज़ार मेवाती योद्धा शहीद हो गए थे. शहीद इसलिए हुए थे क्योंकि अपनी ज़मीन को विदेशी दुश्मनों से बचाना था. लेकिन अब अपनी ज़मीन बचाने के लिए मेवात के लोगों के पास इतिहास दोहराने का भी विकल्प नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में सशस्त्र संघर्ष की अनुमति नहीं है और शांतिपूर्ण प्रदर्शन की गूंज सरकारी दरवाज़ों को भेद नहीं पाती. किसानों के दुख और ग़ुस्से का एक ही रंग है स्याह, पर बोलियाँ अलग अलग हैं. मजबूर लोग ताउम्र संघर्ष करते रहते हैं और विरोध करने वालों को उग्रवादी के नाम से पुकारा जाने लगता है. विकासशील से विकसित होते भारत के एक मुहाने पर किसान बैठे हैं और दूसरी तरफ इनके प्रयोग करने वाले जो उदारवाद के नाम, समय - समय पर इनको चूसा करते हैं.  हाऊसिंग सोसाइटी, हाई वे, रेस ट्रैक, शॉपिंग मॉल्स, स्टेडियम, आइ टी हब्स और गोल्फ कोर्स में तब्दील हो चुके खेत अब गाँव को हरियाली नहीं दे पा रहे हैं.  उठते ज्वार की तरह आधुनिक जमाने की ये सुविधाएँ गाँवों को खत्म करते जा रही है. अब ये वीरान टापू की शक्ल ले चुके हैं कोई शक नहीं कि आने वाले ५० -६० सालों में कोई किसान बचे ही नहीं.  जिन हालात में रहकर किसान संघर्ष कर रहे हैं या तो वो कुपोषण से मारे जायेंगे या लोकतंत्र का ये बिगडैल तंत्र उन्हें अगले ५-६ दशक में गोलियों से भून डालेगा.
टप्पल, हमीदपुर, भट्टा परसौल देश कि राजधानी से मात्र १०० किलोमीटर की दुरी पर हैं पर विकास को आधार बनाकर देख जाय तो सदियों पीछे दिखेंगी. ना तो वंहा इलाज़ की समुचित व्यवस्था है और न तो शिक्षा के बेहतर केंद्र. एक तरफ विकास की बात हो रही है तो दूसरी और पिछडापन का नज़ारा है. सडकें गॉवों से शहरों तक आयें तो इसे विकास कहा जा सकता है लेकिन सडकें शहरों से गॉवों तक आ रही हैं तो कहा जा सकता है कि ये गलत नीयत से आ रही हैं । विकास स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन विकास का नारा लगाकर चुनाव जीतने वाले लोग हमें बताते हैं कि सडक, कार, मोबाइल या फिर ऐसी ही दूसरी चीजें विकास है तो यह क्यों छुपाते हैं कि इनमें से कौन सी चीज हमने विकसित की है। सरकारें सिवाय दूसरे देशों के माल को अपने यहॉ खपा कर बदले में अपनी प्राकृतिक सम्पदा और धन अकूत मात्रा में बाहर के मुल्कों को देने के अलावा कुछ नहीं कर रही है। विकास क्या है ? उपभोक्ता बनकर खरीददारी करना या वस्तुओं का निर्माण कर उसका बेहतर बाज़ार बनाना. विकास के बहाव में ज़िन्दगी को क्यूँ नीरस किया जा रहा है. ऊँची ऊँची दीवारों से विकास संभव नहीं हो सकता. किसी भी देश का विकास वंहा रहने वाले लोगों से होता है. लोगों का विकास ६ लेन रास्तों या रेस कोर्स से नहीं हो पायेगा. बारात आज भी अपनी मूलभूत समस्याओं से लड़ रहा है. हमारे पास स्कूल, अस्पताल और यातायात के उचित साधन नहीं हैं. पहले इन्हें स्थापित करना होगा. इनसे मनुष्य का विकास होगा. फिर ये विकसित मनुष्य विकसित राष्ट्र बना पाएंगे. नहीं तो किसी दिन कोई सुनामी या फिर पाकिस्तान या चीन का मिसाइल इन ऊँची ऊँची इमारतों को ढाह देगा और हम उस दिन फिर संघर्ष करते नज़र आयेंगे. शहरों की अनियंत्रित भौतिक ख्वाहिशें गांवों की खांटी पहचान को निर्ममता से लील रही हैं  और ये सब वह सरकार कर रही है जो हमारी चुनी हुई कही जाती है.
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भूमि अधिग्रहण से संबंधित वर्षों पुराने कानून के संशोधन की दिशा में कोई कदम नहीं उठाती है और राहुल गांधी उसी कानून के तहत होने वाले भूमि अधिग्रहण का विरोध करते हैं, लेकिन सिर्फ वहीं, जहां गैर कांग्रेसी दलों की सरकार है. किसानों पर फायरिंग होती है, किसान मरते हैं, औरतें विधवा होती हैं, बच्चे अनाथ होते हैं, तब राहुल गांधी उनकी खबर लेने नहीं जाते. मगर जैसे ही धारा-144 हटा ली जाती है, वह फौरन पहुंच जाते हैं, मानो आग ठंडी होने का इंतज़ार कर रहे हों और फिर राख के ढेर से चिंगारी तलाश कर उसे भड़काने की फिराक में हों, जिस पर वह अपनी सियासी रोटियां सेंक सकें. घर घर जाकर  रोती-बिलखती महिलाओं एवं बच्चों से मिलकर उन्हें सांत्वना देते हैं, उनके दु:ख-दर्द बांटने की कोशिश करते नज़र आते हैं. वह किसानों की मांगों के समर्थन में धरने पर भी बैठ जाते हैं और मीडिया में सु़र्खियां बटोरने में कामयाब भी हो जाते हैं. अगर वाक़ई वह किसानों के सच्चे हितैषी होते तो गांव भट्टा जाने के बजाय सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय जाते और भूमि अधिग्रहण क़ानून के संशोधित विधेयक को पारित करने की कोशिश करते. सच्चाई यह है कि राहुल गाँधी नहीं चाहते यह मुद्दा सुलझे नहीं तो भ्रस्टाचार के आरोपों से लड़ रही कांग्रेस को ध्यान भटकाने के लिए कोई और मुद्दा आगामी उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव तक नहीं मिलेगा साथ ही इसी मुद्दे के सहारे वो सत्तासीन बहुजन समाजवादी पार्टी पर हमला करते रह सकते हैं. पर जनाब, आप पर ये सोभा नहीं देता. जिस युवा नेतृत्व के नाम पर आपने शुरुवात की थी वो खत्म हो चुका है, और इसे किसी और ने नहीं बल्कि आपकी अज्ञानता ने किया है. आप इंदिरा गाँधी के परिवार से ताल्लुक रखते हैं ये देश आपका जागीर है. भले ही आप पूर्ण रूप से आज़ाद हों पर आधी आज़ादी में जीने वालों के मर्म को आप नहीं समझ सकते. पढ़े - लिखे हो, कम से कम सच तो बोलना सिख जाओ. क्यूँ नहीं बताते आप कि सिर्फ आपका पोलिटिकल अजेंडा है. बताओ लोगों को कि किसानों के नाम आप सिर्फ राजनीति कर रहे हों... तब इस देश के युवा आप पर भरोषा करेंगे.

4 comments:

  1. विचारोत्तेजक आलेख।

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  2. धन्यवाद मनोज जी...

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  3. सामयिक एवं विचारणीय प्रश्न।

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  4. प्रश्न विचारोत्तेजक हैं।

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