60 साल के बजाय अगर पिछले 70 सालों को लें तो भारतीय राजनीतिक और सामाजिक इतिहास में "गांधी" शब्द से बड़ा कोई और शब्द नहीं दिखता. लेकिन ये दौर फेसबुक, गूगल का है. फिलहाल गांधी कागज और कम्पूटर की दिवार पर चिपके मिलते हैं, इसलिए ज़रूरी नहीं है कि "गांधी" जीतेगा. दलदल में फंसे वर्तमान को अगर बेहतर बनाना है तो फिर से "सम्पूर्ण क्रांति" लानी होगी. यह तय करना होगा कि अब क्या करना है? इसमे दिलचस्प होगा कि नव उदारवाद के दौर में "जेपी" कौन होगा?
हर वो सख्श जो कहता था दरियादिली की बात आज कठघरे में खड़ा मुस्कुरा रहा है....
मैं कुछ दिनों से गांधी और गोडसे के बारे मैं पढ़ रहा हूं, इतिहास मैं उलझनें बहुत हैं शायद यही वह वजह है कि कभी गांधी हिरो दिखते हैं तो कभी पक्षपात से ग्रसित एक राजनेता जो जानता है कि इमानदारी और हिम्मत को कैसे मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता है. गोडसे संघ की चारदीवारी से बाहर रावण की भूमिका में है. कुछ जगहों पर मिलता है कि भारत में उस वक़्त की राजनीति में ४ मुख्य चेहरे थे. पहला, जवाहरलाल नेहरु जिनकी विचारधारा क्या थी पता नहीं चल पाता. वो क्या चाहते थे, किसके थे, किसके लिए थे वगैरह - वगैरह.. दूसरा, बाबासाहेब जिन्हें उस वक़्त समाज में प्रेरणाश्रोत बनना था, वो दलित उत्थान की बात कर हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़ा बैठे. उसी वक़्त गोडसे कुछ उन चन्द लोगों में से थे जो हिन्दुओं को जोड़ने और बचाने में परेशान थे. और चौथे थे गांधी (मोहनदास करम चन्द गांधी). वैसे तो देश गाँधी का था लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है कि उस वक़्त की राजनीति ये चाहती थी कि गांधी ना रहें. गांधी पर एक सप्ताह पहले भी हमला हो चुका था फिर भी उनकी सुरक्षा का बंदोबस्त क्यूँ नहीं हुआ इसका जिक्र कहीं नहीं मिलता. गांधी हत्या की नैतिक ज़िम्मेदारी जवाहरलाल नहीं लेते हैं. मैं ये बिलकुल नहीं मानता कि गोडसे ने सही किया. लेकिन गलती गोडसे कि थी मैं ये भी नहीं मानता. मुझे लगता है गांधी खुद अपनी हत्या के ज़िम्मेदार थे, और दूसरी गलती नेहरु की थी. गांधी की हत्या के पीछे उनका मुस्लिम प्रेम था जिसका जिक्र कई जगह पर मिलता है. भाईचारा और इंसानियत का पाठ पढ़ाने वाले गांधी खुद इन्हीं वजहों से कठघरे में दिखते हैं. लोकतंत्र में हिंसक रवैया अपनाने वाले गोडसे भी कठघरे में दिखते हैं. नेहरु, बाबासाहेब, बल्लभ भाई पटेल सभी कंही न कंही वर्तमान भारत की दशा के लिए कठघरे में दिखते हैं. और सबसे बड़ा गुनहगार वो शब्द "गांधी" दिखता है जो कईयों को तोहफ़े में आजीवन मिला है.
इतिहास में कई और उलझनें भी हैं, कहीं कहीं ये उल्लेख भी मिलता है कि नेहरु परिवार मुस्लिम से हिन्दू परिवर्तित है. जो मूलतः कश्मीर के थे और आगरा में बस चुके थे. इसे पिछले ६ दशकों में दबी कुचली ज़बान से बोला गया है. गोडसे में हैदराबाद के निजाम की वजह से मुस्लिम विरोध दिखता है जिससे आहत वो गांधी की हत्या कर बैठते हैं. बाबासाहेब आज भी जिंदा दिखते हैं जब मायावती, मंडल और वामपंथी धडा अपनी राग अलापता है. और गांधी इस देश में सदैव ज़िंदा रहेंगे जिसका अनुमान भी इतिहास के इन्हीं पन्नों में मिलता है. नेहरु और गांधी की उपज इंदिरा थोड़ी सशक्त और जिंदादिल ज़रूर दिखती हैं लेकिन ये देश उनकी जागीर थी यह समझने की भूल वह भी कर बैठती हैं. राजीव, राहुल फ़िरोज़ गांधी के वंशज हैं लेकिन इतिहास उन्हें नेहरु के साथ देखता है. सोनिया भारत की हैं इसे लोकतंत्र तो मानता है लेकिन जनमानस नहीं. इतिहासकार और उस वक़्त के कई लेखक जिनके शब्द हमतक पहुँचते हैं उनकी बातें कुछ और होती हैं. उनकी जीवनशैली, प्रतिष्ठा और नज़रंदाज़ी इतिहास के पन्नों में उलझन डालती है लेकिन जिन लेखकों की आवाज़ हम तक नहीं पहुच पायी इतिहास में वो आज भी नगण्य हैं.
ये उलझन आज़ादी की नीवं को कमज़ोर बनाती है इसलिए ज़रूरी नहीं है कि "गांधी" जीतेगा. दलदल में फंसे वर्तमान को अगर बेहतर बनाना है तो फिर से "सम्पूर्ण क्रांति" लानी होगी. सब कुछ फिर से बदलना होगा. यह तय करना होगा कि अब क्या करना है? इसमे दिलचस्प होगा कि नव उदारवाद के दौर में "जेपी" कौन होगा?