Sunday, April 18, 2010

बस्तर : सब कुछ खामोश है, बिलकुल शांत

पिछले छह अप्रैल से बस्तर, जगदलपुर, दंतेवाड़ा और आस पास के इलाको में वाहनों की आवाजाही बंद है, या बिलकुल ना के बराबर है  क्योंकि क्यूंकि उसी दिन सुबह यह इलाक़ा गवाह बना भारत के इतिहास के सबसे बड़े नक्सली हमले का. जिसमें सुरक्षाबलों के 76 जवानों को अपनी जान गवांनी पड़ी. उन क्षेत्रो में प्रेस के जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है. और वंहा आज भी कुछ पुलिस कैंप हैं जंहा रेत की बोरियों के पीछे सिमटे हुए जवान सड़क पर चलने वालों पर पैनी नज़र रखते हैं, बाकी सब कुछ खामोश है, बिलकुल शांत.

स्थिति की थोड़ी सी अनदेखी से फिर कोई ख़तरनाक परिणाम आ सकते है, इसलिए सरकार सतर्क हो गयी है, पर कहाँ - कहाँ बारूदी सुरंग बिछी हुई है यह खुद माओवादी भी भूल गए हैं. छह अप्रैल की घटना के बाद पूरे बस्तर में खौफ़ का साया है. सुदूर ग्रामीण और जंगली क्षेत्रों में अब मौत का डर बड़े पैमाने पर लोगों को पलायन करने पर मजबूर कर रहा है. ज़िला मुख्यालय दंतेवाड़ा से लगभग 150 किलोमीटर दूर स्थित चिंतलनार के लोग बताते हैं कि पिछले कुछ दिनों से वह अपने अपने घरों में सिमटे हुए हैं. इस इलाक़े में हर मंगलवार को बाज़ार भी लगता है जो इस बार नहीं लगा. यहाँ कब क्या होगा कोई नहीं जानता. बिजली नहीं होने के कारण यंहा कि हर रात और ज़्यादा अंधेरी और भयावह बन जाती है.
सुबह छह बजे से दो घंटों तक चली मुठभेड़ का गांव वालों की तरफ़ से कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं है. जिससे पूछो वह यही कहता है: "हमने कुछ नहीं देखा. हम अपने घरों में थे. सिर्फ़ आवाजें सुन रहे थे." विदित रहे कि ये आदिवासी बहुल इलाका है, यंहा से जिन लोगो का पलायन शुरू हुआ है, उग्रवादी उन्ही कि लड़ाई लड़ने कि बात करते हैं.

 उन जगहों पर और उनके आस पास के इलाको में उद्दयोग को बढ़ावा देने के लिए एस्सार, जिंदल जैसी कंपनियों को ज़मीन और सुरक्षा का भरोषा दिलाया गया था, और वायदे के मुताबिक ऑपरेशन ग्रीन हंट को शुरू किया गया. सरकार की नीयत का पता तभी चलने लगा था जब, उग्रवाद हटाओ अभियान ऑपरेशन ग्रीन हंट कि शुरुआत में ही 650 गाँवों को वंहा से कंही और शिफ्ट कर दिया गया.

पी चिदंबरम ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा कि बात कर गए, लेकिन इस्तीफा नामंजूर होने के कारण अभी भी गृह मंत्री के पद पर बने हुए हैं, उग्रवादियों ने जश्न मनाया, और शायद ऐसी ही किसी दूसरी घटना को अंजाम देने में लग गए है.. पर एक कमज़ोर सरकारीनीति  और मंद्बुधि उग्रवादियों के कारण कई माँ कि गोद सुनी हो गयी, सरकार, देश और मीडिया कंही खो गए.

पर आदिवासियों का पलायन कई सवाल खड़ा करता है, क्या उग्रवादी अपने अस्तित्व कि लड़ाई लड़ रहे हैं या आदिवासियों की...? ऑपरेशन ग्रीन हंट के पर्दाफाश होने के बाद सरकार से आदिवासियों की उम्मीद तो नही टूट गयी है?
भारत के 23 अलग - अलग राज्यों के कुल 645 जिले में 649 प्रजाती के अनुसूचित जनजाति पाए जाते हैं, इनमे से ज़्यादातर अहिंसक प्रविर्तियों के होते हैं, ये आदवासी कब और क्यूँ उग्रवादी बने मैं नही जनता, और शायद ज़्यादातर पत्रकार, सरकार, कानूनविद, या बुद्धिजीवी भी नही जानते, जो उग्रवाद को परिभाषित करते हैं, ये बात सिर्फ वो लोग जानते हैं जिन्होंने अशिक्षित, इमानदार और भोले भले जंगली लोगो को हरे भरे पेड़ पोधे के बीच खून की नदियाँ बहाना सिखाया.
 
मैं शायद ये बात इसलिए कह रहा हूँ क्यूंकि संभावित उपाय  कि बात कोई नही करता. एक प्रजातांत्रिक सरकार भले ही बातचीत पर राजी हो जाये पर उग्रवाद को वव्साय बनाए वाले लोग ऐसा कभी नही होने देंगे, क्यूंकि इन्ही जंगलो से वो करोडो - अरबो रुपये का मुख्यधारा में लकड़ियाँ, जंगली जानवरों के अंग, खनिज एंव लौह अयस्क का व्यापार करते हैं, और जिससे संगठन के लिए हथियार, जीविकोपार्जन के खर्चे और संगठन के भविष्य के नाम पर एक ख़ास रकम ज़मा करते हैं, और फिर कोई क्यूँ भला अपने साम्रज्य का अंत करे. सरकार का एक नजरिया ये भी हो सकता है कि उद्योग को बढ़ावा देने पर माहौल में बदलाव आएगा जिसके आधार पर विकास किया जाए क्यूंकि सरकार भी ये जानती है, एक विचारधारा का अंत वो भी सुचना क्रांति और आधुनिकता के दौर में आसान नही है, ऐसे में ये तब और भी मुश्किल है जब उग्रवादी हममे आपमें से एक है, वो भी इस देश का नागरिक है. सरकार इस मुद्दे पर खुल कर काम नही कर सकती, क्यूंकि एक तरफ आर्थिक उदारीकरण कि सोच है तो तो दूसरी तरफ मानवाधिकार का संघर्ष इसलिए भलाई इसमें है की विकास के नाम पर उग्रवाद को मौत की सज़ा सुनाई जाय.

भारत में 20 राज्यों के 223 जिलो में फैले उग्रवाद को हटाने कि अब तक के सबसे बड़े अभियान ऑपरेशन ग्रीन हंट कि सच्चाई यह है कि सेना के जवान आये हैं जो मंत्रालय और राजधानी में बैठे लोगो का आदेश है. जंगलो से हजारो हज़ार गाँव को कंही और शिफ्ट करा दिया जा रहा है, और अगर कंही उग्रवाद कि बू आई तो  सैकड़ो लोगो को मौत के घाट उतार दिया जा रहा है. जो बच गए वो बचने के आश्चर्य में सहमे हुए हैं... ऐसा नही सिर्फ वंहा के लोग सहमे हैं, वंहा हर कोई सहमा है, चाहे वो पुलिस हो, सेना हो, या फिर क्यूँ नही उग्रवादी हो... और बचने और मारने दोनों तरकीबो से ये सहमे उग्रवादी यंहा पहली बार अपने अस्तित्व और वर्चस्व कि लड़ाई लड़ रहे हैं...  तैयारी दोनों कि है पर दोनों का मकसद अलग है इसलिए इस जंग में कई बेक़सूर शहीद हो रहे हैं......ऐसा नही है कि ये सिर्फ जंगली एरिया में हो रहा है, राजधानी क्षेत्र में भी उद्योगिक घराना विकास के लिए सरकार के साथ है.

पर मामला इसलिए विचारनीय है क्यूंकि ये मामला नही एक मुद्दा है, एक ऐसा मुद्दा जिससे इन क्षेत्रों में राजनीति होती है. और यही वो समस्या है जिसके अन्दर इसका उपाय है. पिछले 63 सालो से  जो लोग इन क्षेत्रो से चुनकर आये वो यंहा के विकास के नाम पर करोडो रुपये लिए ज़रूर पर खर्च बिलकुल ना के बराबर हुआ, लाल पिली बत्तियों पर चलने वाले देश के नीतिनिर्धारक और उग्रवाद को परिभाषित करने वाले बुद्धिजीवी भी वंहा तभी पहुंचे जब कभी घटनाएँ घटी. और इसके लिए कोई एक ज़िम्मेदार नही. उग्रवाद हिंदुस्तान की समस्या है, इसलिए हिंदुस्तान का हर नागरिक इसके लिए ज़िम्मेदार है.  बेहतर बदलाव की शुरुआत उन्हें करनी होगी जो इन क्षेत्र से राजनीति करते हैं, सरकार को वंहा के लोगो को भगाना नही बल्कि ये बताना होगा ये उनकी ज़मीन है, ये उनका भी देश है, ज़िम्मेदारी उनकी भी है जो इन क्षेत्रो में रहते हैं और शिक्षित हैं, ज़िम्मेदारी उन सारे पार्टियों की है जो उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र में अपने उम्मीदवार को टिकट देती है. स्थिती गृहयुद्ध की है इसलिए यंहा विरोधात्मक नही सकारात्मक सोच की ज़रुरत है.

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