Friday, September 24, 2010

आतंकवाद: आतंक और आस्था की राजनीति

आतंकवाद हमेशा से विरोधात्मक एवं हिंसात्मक प्रतिक्रिया रहा है। हिंदुस्तान पाकिस्तान अलगाव के कारण एवं इस बात के लिए होती अन्र्तराष्ट्रीय राजनीति के कारण मुसलमान को आतंक से सबसे पहले जोड़ा गया. अशिक्षा और गरीबी ने पश्चिमी देशो को मौका दिया जिससे अमन और शांति का धर्म जेहाद के मायनों में भटक गया। ऐसा नहीं था कि मुसलमान को आतंक से जोड़ने वाले सिर्फ पश्चिमी देश थे, मुसलमान को आतंकी मुस्लिम नेताओं ने बनाया। जेहाद और कौम के नाम पर मुसलमानों ने खुद मुसलमान को आतंक से जोड़ा। विरोध इस हद तक था कि जेहादियों ने पूरे विश्व में अपना पैर पसार लिया कंहीं इसके प्रभाव में यहूदी आये कंहीं हिन्दू, कंहीं सिख तो कंहीं कोई और समय के साथ मुसलमानों को भी विरोध का सामना करना पड़ा। विश्व के कई देशों ने मुसलमानों को मानव समाज से अलग थलग कर दिया साथ ही जन्म दिया कौमी लड़ाई कोऔर यंही से जन्म हुआ जातिगत आतंक का। क्योंकि जातियां पहले से राजनीति के गिरफ्त में थी इसलिए आतंक के साए में राजनीति ने जातिगत आस्था का सहारा लिया. इसलिए इसे मुस्लिम या भगवा आतंकवाद के रूप में परिभाषित करने के बजाए राजनीतिक आतंकवाद के रूप में परिभाषित करना ज्यादा सार्थक होगा।
भारतीय परिप्रेक्ष में आतंकवाद हमेशा कश्मीर का मुद्दा रहा है, जिसका असर पूरे हिन्दुस्तान में रहा है, पर मुद्दे के बजायें पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और पूर्वोतर राज्यों ने भी कश्मीर के आतंकवाद का कहर झेला है। अपनी बात कहने के लिए आतंक का सहारा लेने वालों ने लाखों भारतीयों को मौत के घाट सुला दिया है। आतंकवाद को हिन्दुस्तान में जिस तरीके से प्रसारित किया गया उससे सबसे ज्यादा नुकसान किसी का हुआ तो वो भारतीय मुसलमान  थे और जिन्होंने इसका फायदा उठाया और वो राजनेता रहे हैं।
फूट डालो और शासन करों की तर्ज पर राजनेताओं ने हिन्दु, मुसलमान, सिख और इसाई सबको कभी भारतीय नहीं बनने दिया। अपने फायदे के लिए साधारण भारतीयों को मानव बम बनाकर गली-मौहल्लों में आतंक फैलाने वाले सियासी नेता कल तक मुस्लिम आतंकवाद का नाम दे रहे थे, आज उसे हिन्दु आतंकवाद नहीं बल्कि भगवा शब्द का प्रयोग कर करोडो़ हिन्दुओं की आस्था को आतंकवाद से जोड दिया। 
राम ने पाप का अंत कर पुण्य को जीत दिलायी थी, रामभक्त उनकी जमीन और उनके नाम की शह पर इंसानीयत का अंत कर आतंकवाद को पैदा कर रहे हैं। कल तक आतंकवाद को मुसलमान से जोड़ने वालो में हिन्दू सबसे आगे थे आज भगवा शब्द का आतंक से नाम जुड़ा तो देश भर के हिन्दुओं ने विरोध किया। ऐसा नहीं है कि सारे मुसलमान आतंकी हैं या फिर सारे हिन्दू या सिख पर सबसे बडा़ सवाल यह है कि क्यों नहीं ये हिन्दु आतंकवादी हैं जिन्हें कल तक आतंकवाद में मुसलमान दिखता था। पंजाब में आतंकवाद था मुसलमान नहीं थे। कर्नाटक में आतंकवाद था मुसलमान नहीं थे। अयोध्या में आंतक हुआ बल्कि अभी भी हो रहा है यहां भी मुसलमान नहीं हैं। खुद को पाक साफ कहने वाले हिन्दुओं ने क्या मुसलमानों को आतंकवादी बनने के लिए शह नहीं दी?
हाल ही में एक मशहूर पत्रिका के स्टींग ऑपरेशन ने खुलासा किया कि श्री राम सेना जो राजनीतिक रूप से भी सक्रिय हैं पैसे लेकर आंतक फैलाते हैं। श्रीराम सेना के एक बडे़ अधिकारी के अनुसार वो रामभक्त हैं और राम की जमीन को पवित्र करने की कोशिश कर रहे हैं। कभी गंदी राजनीति के सहारे कभी हथियारों के सहारे। गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के भगवा (शेफरन) शब्द के प्रयोग के बाद भारतीय हिन्दुओं के बीच खलबली मच गयी पर शायद हिन्दु भूल गये कि अयोध्या की जमीन पर आतंक फैलाते वक्त इनके जुबान पर ‘जय श्री राम’ और शरीर पर ‘भगवा रंग’ था। कई बुद्धिजीवी और अप्रत्यक्ष राजनीति में सक्रिय कई पत्रकार भगवा को सन्यास और भक्ति से जोड़कर बेवजह मामले पर अपनी बुद्धिजीविता को दिखने में लग गए पर किसी हिन्दू में इतनी ताकत नहीं दिखी जो भगवा शब्द के बजाय हिन्दू शब्द को आतंक से जोड़कर ये माने की आतंक की न कोई जात रही है न है।
 अयोध्या की संकरी गलियों से लेकर कश्मीर की वादियों तक में आतंकवादियों के आतंक का शिकार आम आदमी हुआ है जिसका आतंक से कोई लेना देना नहीं है। आतंक से जीना बेहाल  सिर्फ उनका हुआ है जो अपने ही देश में डरे सहमे जीने की कोशिश कर रहें हैं।
जम्मू - कश्मीर, बिहार, झारखण्ड, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, महाराश्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, नागालैंड, असम, त्रिपुरा, मणीपुर, मिजोरम, कर्नाटक, तमिलनाडु समेत पूरे हिन्दुस्तान में तकरीबन 178 ऐसी जगह हैं जहां कश्मीर जैसी या उससे भी भयवाह स्थिति है। कहीं आतंकवाद है कहीं उग्रवाद हैं। कहीं कोई मुस्लीम आतंक फैला रहा है तो कहीं हिन्दू, कंही सिख तो कहीं इसाई। ये मुस्लिम आतंक है या हिन्दू आतंक है । या सिर्फ आतंक।
जातिगत समाज में उपलब्ध मतदाताओं की जानकारी हर राजनेता के पास होती है पर आतंक फैलाने वालों की जानकारी किसी के पास नहीं है। कश्मीर में पत्थर कौन चलाते हैं इसे कोई राजनेता नहीं कह सकता पर टी.वी. चैनलों पर आकर बोलने का मौका दीजिए फिर देखिये इनके शब्दों का प्रयोग और अपनी-अपनी कौम के नाम पर लोगों को वर्गलाने में कोई कसर नहीं छोडते।
ऐसा लगता है कि गाँधी चले गये गये और आज के इन राजनेताओं को छोड़ गए। वर्षों से ये राजनेता राजनीति करते आ रहे हैं, कराते आ रहे हैं पर कोई हल नहीं निकला है और न ही निकलेगा क्योंकि जिस दिन आतंक और जाति की राजनीति खत्म होगी हल तो निकल जायेगा पर इनको शह देने वालों की राजनीति खत्म हो जाएगी।
दक्षीण एशिया में साम्यवाद के नाम पर 32 से भी ज्यादा संगठन हैं जो कौमी तौर पर हिंसक रवैया अपनाते हैं और इन्होंने अपनी-अपनी छतरी को भगवान या अल्ला के नाम से रंग रखा है।
आतंकवाद  एक संगठीत व्यवसाय है जिसे विभिन्न देशों में मौजूद राजनेता  अपने- अपने फायदे के लिए प्रयोग कर रहें हैं।
इस प्रयोग में इनका कोई नुकसान नहीं है और इन प्रयोग से मरने वालों का कोई हिसाब नहीं हैं। आस्था के नाम पर खून की नदियाँ बहाने वाले हमेशा यह तर्क देते आये हैं कि हम भी चुप नहीं बैठेंगे, अगर हमारी आस्था पर चोट पहुँचती है तो विरोधात्मक और हिंसात्मक रवैया अपनाकर हम भी आतंक का सहारा लेंगे लेकिन ये हिन्दु आतंकवादी है भगवा आतंकवादी नहीं अगर कंही कोई मुस्लिम आतंकवादी है तो। ये भी उतने ही क्रूर सजा के लायक हैं जितना की अफजल गुरू।

  • गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के भगवा (शेफरन) शब्द  के प्रयोग के बाद भारतीय हिन्दुओं के बीच खलबली मच गयी पर शायद 
हिन्दु भूल गये कि अयोध्या की जमीन पर आतंक फैलाते वक्त इनके जुबान पर ‘जय श्री राम’ और शरीर पर ‘भगवा रंग’ था। 

  • मुसलमान को आतंक से जोड़ने वाले सिर्फ पश्चिमी देश नहीं थे, मुसलमान को आतंकी मुस्लिम नेताओं ने बनाया। जेहाद और कौम के नाम पर मुसलमानों ने ही खुद को आतंक से जोड़ा। अशिक्षा और गरीबी ने पश्चिमी देशो को मौका दिया जिससे अमन और शांति का धर्म जेहाद के मायनों में भटक गया।

  • एक मशहूर पत्रिका के स्टींग ऑपरेशन ने खुलासा किया कि ‘श्री राम सेना’ जो राजनीतिक रूप से भी सक्रिय हैं पैसे लेकर आंतक फैलाते हैं।  श्रीराम सेना के एक बडे़ अधिकारी के अनुसार वो रामभक्त हैं और राम की जमीन को पवित्र करने की कोशिश कर रहे हैं। कभी गंदी राजनीति के सहारे कभी हथियारों के सहारे।

Friday, July 16, 2010

बदलते दौर में बदलता सिनेमा और मीडिया के प्रयोग

सत्यजित रे, गोविन्द निहलानी, श्याम बेनेगल और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की याद आते ही अगर कुछ जुबान पर आता है तो वो है कहानी और किरदार, पर बदलती सोच से बदलते दौर में भारतीय सिनेमा को आज अगर देखा जाय तो कहानी और किरदार से भी पहले स्टार और मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका को नजरंदाज नही किया जा सकता।
एक किरदार और उसके आसपास की कहानी, कहानी कहने वालों का उद्देश्य और उनकी समझ एक ऐसा आधार बनाता है, जिससे एक वक्ता अपनी बात सिनेमा के माध्यम से करता है. दौर चाहे जो भी रहा हो सिनेमा कभी अपने मूल भाव से नही भटका है, पर वक्ता के व्यक्तव्य और उद्देश्य को परिभाषित करते हुए सच के रूप में मीडिया ने बदलते दौर में सिनेमा के रूप को बदल दिया। मीडिया ने जंहा इसके बाह्य रूप को प्रभावित किया वँही सुचना क्रांति के दौर में सिनेमा व्यवसाय में उद्दमियों को जमकर फायदा पहुँचाया। आर्थिक संपन्नता और बढ़ते व्यवसाय ने स्टारडम को व्यवसायिकता के तराजू पर तौलना शुरू किया। तेल - साबुन - टूथपेस्ट बेचने वालों ने भाषा और शब्द को बेचना शुरू किया। मिलावट इस कदर थी की स्टार के पीछे खडा अभिनेता बीमार हो गया. .
क्रिकेट के साथ 21 वीं सदी तक में अपने अथक प्रयासों के बाद बॉलीवुड ने भारतीय मानसिकता पर अपना कब्जा जमाया। मनोरंजन के बहाने स्टारडम को बेचने में फूहड़ता के सहारे मीडिया के अन्य माध्यमों का अच्छा खासा भला हुआ। रियालिटी शो, कॉमेडी शो, ग्लैमर शो जैसे ना जाने कितने शो बने जिन्होंने दर्शाया की मीडिया भी बदल रही है। सच बोलने की जरूरतों के बजाय भारतीय मीडिया स्टारडम के साए में भारतीय सिनेमा को तवज्जो देने लगी। राजनेताओं के झूठ और विदर्भ में किसानो की मौत से उब चुकी मीडिया के पास सिनेमा की सपफलता को कैश करने से बेहतर कुछ भी नही था।
अब इसे गलत कहा जाय या बदलाव की सतत् प्रक्रिया मानकर इसे अपनाने की कोशिश की जाय? एक ऐसा सवाल, जिसमें एक अहम उलझन भी है। वर्तमान सिनेमा की जितनी तारीफ की गई उससे कंही ज्यादा इसकी तारीफ करवाई गई. बडबोलेपन और अंदरूनी कलह से जुझती वर्तमान भारतीय सिनेमा और मीडिया के अस्तित्व का कोई आधार नही है, ऐसे में ये मान लेना की चीजें बदल चुकी हैं ये काफी नही है।
वर्चस्व से पहले अस्तित्व का सवाल होता है जिसे बाजारीकरण से प्रभावित हो चुके प्रकाश झा, श्याम बेनेगल, राज कुमार संतोषी, अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी जैसे फिल्मकारों को समझना होगा।

Sunday, April 18, 2010

बस्तर : सब कुछ खामोश है, बिलकुल शांत

पिछले छह अप्रैल से बस्तर, जगदलपुर, दंतेवाड़ा और आस पास के इलाको में वाहनों की आवाजाही बंद है, या बिलकुल ना के बराबर है  क्योंकि क्यूंकि उसी दिन सुबह यह इलाक़ा गवाह बना भारत के इतिहास के सबसे बड़े नक्सली हमले का. जिसमें सुरक्षाबलों के 76 जवानों को अपनी जान गवांनी पड़ी. उन क्षेत्रो में प्रेस के जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है. और वंहा आज भी कुछ पुलिस कैंप हैं जंहा रेत की बोरियों के पीछे सिमटे हुए जवान सड़क पर चलने वालों पर पैनी नज़र रखते हैं, बाकी सब कुछ खामोश है, बिलकुल शांत.

स्थिति की थोड़ी सी अनदेखी से फिर कोई ख़तरनाक परिणाम आ सकते है, इसलिए सरकार सतर्क हो गयी है, पर कहाँ - कहाँ बारूदी सुरंग बिछी हुई है यह खुद माओवादी भी भूल गए हैं. छह अप्रैल की घटना के बाद पूरे बस्तर में खौफ़ का साया है. सुदूर ग्रामीण और जंगली क्षेत्रों में अब मौत का डर बड़े पैमाने पर लोगों को पलायन करने पर मजबूर कर रहा है. ज़िला मुख्यालय दंतेवाड़ा से लगभग 150 किलोमीटर दूर स्थित चिंतलनार के लोग बताते हैं कि पिछले कुछ दिनों से वह अपने अपने घरों में सिमटे हुए हैं. इस इलाक़े में हर मंगलवार को बाज़ार भी लगता है जो इस बार नहीं लगा. यहाँ कब क्या होगा कोई नहीं जानता. बिजली नहीं होने के कारण यंहा कि हर रात और ज़्यादा अंधेरी और भयावह बन जाती है.
सुबह छह बजे से दो घंटों तक चली मुठभेड़ का गांव वालों की तरफ़ से कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं है. जिससे पूछो वह यही कहता है: "हमने कुछ नहीं देखा. हम अपने घरों में थे. सिर्फ़ आवाजें सुन रहे थे." विदित रहे कि ये आदिवासी बहुल इलाका है, यंहा से जिन लोगो का पलायन शुरू हुआ है, उग्रवादी उन्ही कि लड़ाई लड़ने कि बात करते हैं.

 उन जगहों पर और उनके आस पास के इलाको में उद्दयोग को बढ़ावा देने के लिए एस्सार, जिंदल जैसी कंपनियों को ज़मीन और सुरक्षा का भरोषा दिलाया गया था, और वायदे के मुताबिक ऑपरेशन ग्रीन हंट को शुरू किया गया. सरकार की नीयत का पता तभी चलने लगा था जब, उग्रवाद हटाओ अभियान ऑपरेशन ग्रीन हंट कि शुरुआत में ही 650 गाँवों को वंहा से कंही और शिफ्ट कर दिया गया.

पी चिदंबरम ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा कि बात कर गए, लेकिन इस्तीफा नामंजूर होने के कारण अभी भी गृह मंत्री के पद पर बने हुए हैं, उग्रवादियों ने जश्न मनाया, और शायद ऐसी ही किसी दूसरी घटना को अंजाम देने में लग गए है.. पर एक कमज़ोर सरकारीनीति  और मंद्बुधि उग्रवादियों के कारण कई माँ कि गोद सुनी हो गयी, सरकार, देश और मीडिया कंही खो गए.

पर आदिवासियों का पलायन कई सवाल खड़ा करता है, क्या उग्रवादी अपने अस्तित्व कि लड़ाई लड़ रहे हैं या आदिवासियों की...? ऑपरेशन ग्रीन हंट के पर्दाफाश होने के बाद सरकार से आदिवासियों की उम्मीद तो नही टूट गयी है?
भारत के 23 अलग - अलग राज्यों के कुल 645 जिले में 649 प्रजाती के अनुसूचित जनजाति पाए जाते हैं, इनमे से ज़्यादातर अहिंसक प्रविर्तियों के होते हैं, ये आदवासी कब और क्यूँ उग्रवादी बने मैं नही जनता, और शायद ज़्यादातर पत्रकार, सरकार, कानूनविद, या बुद्धिजीवी भी नही जानते, जो उग्रवाद को परिभाषित करते हैं, ये बात सिर्फ वो लोग जानते हैं जिन्होंने अशिक्षित, इमानदार और भोले भले जंगली लोगो को हरे भरे पेड़ पोधे के बीच खून की नदियाँ बहाना सिखाया.
 
मैं शायद ये बात इसलिए कह रहा हूँ क्यूंकि संभावित उपाय  कि बात कोई नही करता. एक प्रजातांत्रिक सरकार भले ही बातचीत पर राजी हो जाये पर उग्रवाद को वव्साय बनाए वाले लोग ऐसा कभी नही होने देंगे, क्यूंकि इन्ही जंगलो से वो करोडो - अरबो रुपये का मुख्यधारा में लकड़ियाँ, जंगली जानवरों के अंग, खनिज एंव लौह अयस्क का व्यापार करते हैं, और जिससे संगठन के लिए हथियार, जीविकोपार्जन के खर्चे और संगठन के भविष्य के नाम पर एक ख़ास रकम ज़मा करते हैं, और फिर कोई क्यूँ भला अपने साम्रज्य का अंत करे. सरकार का एक नजरिया ये भी हो सकता है कि उद्योग को बढ़ावा देने पर माहौल में बदलाव आएगा जिसके आधार पर विकास किया जाए क्यूंकि सरकार भी ये जानती है, एक विचारधारा का अंत वो भी सुचना क्रांति और आधुनिकता के दौर में आसान नही है, ऐसे में ये तब और भी मुश्किल है जब उग्रवादी हममे आपमें से एक है, वो भी इस देश का नागरिक है. सरकार इस मुद्दे पर खुल कर काम नही कर सकती, क्यूंकि एक तरफ आर्थिक उदारीकरण कि सोच है तो तो दूसरी तरफ मानवाधिकार का संघर्ष इसलिए भलाई इसमें है की विकास के नाम पर उग्रवाद को मौत की सज़ा सुनाई जाय.

भारत में 20 राज्यों के 223 जिलो में फैले उग्रवाद को हटाने कि अब तक के सबसे बड़े अभियान ऑपरेशन ग्रीन हंट कि सच्चाई यह है कि सेना के जवान आये हैं जो मंत्रालय और राजधानी में बैठे लोगो का आदेश है. जंगलो से हजारो हज़ार गाँव को कंही और शिफ्ट करा दिया जा रहा है, और अगर कंही उग्रवाद कि बू आई तो  सैकड़ो लोगो को मौत के घाट उतार दिया जा रहा है. जो बच गए वो बचने के आश्चर्य में सहमे हुए हैं... ऐसा नही सिर्फ वंहा के लोग सहमे हैं, वंहा हर कोई सहमा है, चाहे वो पुलिस हो, सेना हो, या फिर क्यूँ नही उग्रवादी हो... और बचने और मारने दोनों तरकीबो से ये सहमे उग्रवादी यंहा पहली बार अपने अस्तित्व और वर्चस्व कि लड़ाई लड़ रहे हैं...  तैयारी दोनों कि है पर दोनों का मकसद अलग है इसलिए इस जंग में कई बेक़सूर शहीद हो रहे हैं......ऐसा नही है कि ये सिर्फ जंगली एरिया में हो रहा है, राजधानी क्षेत्र में भी उद्योगिक घराना विकास के लिए सरकार के साथ है.

पर मामला इसलिए विचारनीय है क्यूंकि ये मामला नही एक मुद्दा है, एक ऐसा मुद्दा जिससे इन क्षेत्रों में राजनीति होती है. और यही वो समस्या है जिसके अन्दर इसका उपाय है. पिछले 63 सालो से  जो लोग इन क्षेत्रो से चुनकर आये वो यंहा के विकास के नाम पर करोडो रुपये लिए ज़रूर पर खर्च बिलकुल ना के बराबर हुआ, लाल पिली बत्तियों पर चलने वाले देश के नीतिनिर्धारक और उग्रवाद को परिभाषित करने वाले बुद्धिजीवी भी वंहा तभी पहुंचे जब कभी घटनाएँ घटी. और इसके लिए कोई एक ज़िम्मेदार नही. उग्रवाद हिंदुस्तान की समस्या है, इसलिए हिंदुस्तान का हर नागरिक इसके लिए ज़िम्मेदार है.  बेहतर बदलाव की शुरुआत उन्हें करनी होगी जो इन क्षेत्र से राजनीति करते हैं, सरकार को वंहा के लोगो को भगाना नही बल्कि ये बताना होगा ये उनकी ज़मीन है, ये उनका भी देश है, ज़िम्मेदारी उनकी भी है जो इन क्षेत्रो में रहते हैं और शिक्षित हैं, ज़िम्मेदारी उन सारे पार्टियों की है जो उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र में अपने उम्मीदवार को टिकट देती है. स्थिती गृहयुद्ध की है इसलिए यंहा विरोधात्मक नही सकारात्मक सोच की ज़रुरत है.

Thursday, April 15, 2010

ग़ुलामी इनकी हकीक़त है इसलिए राजनीति आज शक्तिशाली है

समाजवादी पार्टी ने मंहगाई के विरोध में हाल ही में 13 प्रमुख राजनीतिक दलों की बैठक में लिए गए देश व्यापी हड़ताल के निर्णय को सफल बनाने के लिए प्रदेश के सभी उद्योगों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों और अधिवक्ताओं से 27 अप्रैल को हड़ताल पर रहने का आह्मवान किया है। सपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता मोहन सिंह ने गुरुवार को संवाददाताओं से बातचीत में बताया कि 13 प्रमुख दलों की बैठक में देश में बढ़ती बेहताशा महंगाई के मुद्दे को लेकर संसद से सड़क तक विरोध करने का फैसला लिया गया था, जिसके तहत 27 अप्रैल को देशव्यापी हड़ताल होगी। उन्होंने कहा कि 27 अप्रैल को प्रदेश के सभी उद्योग, व्यापारिक प्रतिष्ठान हड़ताल में शामिल रहेंगे और अधिवक्ताओं से अपील की कि वे भी इस जन समस्या में अपनी भागीदारी निभाते हुए न्यायिक कार्य से विरक्त रहें।

पर क्यूँ? क्या इससे मंहगाई कम होगी अगर ऐसा होता है तो स्वाभाविक है हम सब को इसमे शामिल होना चाहिए पर मज़े के बात ये है कि 27 अप्रैल को हड़ताल में शामिल होने वाले में से ज़्यादातर लोगो को मंहगाई के नाम पर सिर्फ इतना मालूम होगा कि पार्टी ने बुलाया है और हमसब को वही करना है जो हमें हमारे नेता ने कहा है...

क्यूँ हमेशा विपक्ष विरोध कि बात करता है? क्यूँ नही, विपक्ष किसी समस्या को दूर करने के लिए देशव्यापी हड़ताल करती है... शायद इन हालात में हड़ताल कि ज्यादा ज़रुरत नही पड़ेगी पर सरकार कि मदद से ज़यादा ज़रूरी है सरकार बनना...
ऐसा नही ये बात सिर्फ समाजवादी पार्टी कि है, देश भर में फैले हज़ारो पार्टियों का एक ही हाल है, कहने को तो सब वैचारिक लोग हैं पर विचारधारा से ज्यादा ज़रूरी कुर्सी को पाना और अपने राजनैतिक क्षेत्र में अपनी सामाजिक हार को बचाना होता है...
यंहा हर किसी कि अपनी विचारधारा है, कोई हिन्दू के नाम पर लोगो को बाँट रहा है तो कुछ दलित और ब्रह्मिन के साथ है... विश्व के सबसे बड़े जनतांत्रिक देश में जंहा सिर्फ 15% लोग उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाते हों, वंहा जाती, धर्म, अत्याचार और मंहगाई के नाम पर इन्हें लाखो खून लेने और देने वाले लोग मिल जाते हैं.. भारत में मुद्दा के अलावा और कुछ नही बदलता, क्यूंकि पिछले ६३ सालो में कुछ नही बदला.. हो सकता है मेरी बात से कुछ लोग सहमत नही हों, पर अगर आप आर्थिक उदारीकरण कि बात करेंगे तो आपको एक बार छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार के सुदूर गाँवो में जाना होगा, देखना होगा कि बदलाव क्या हुए हैं?

मोबाइल कम्पनियां गाँव गाँव तक पहुँच चुकी है, अखबार और टी आर पी चैनल वाले का प्रभाव भी पंहुच चुका है, उनकी बातें उनका चेहरा अब दिल्ली में भी दिखता है, पर एक चीज़ आज भी नही बदला है, जो कभी अंग्रेजों के ग़ुलाम थे, आज अपनों के ही ग़ुलाम हैं... ग़ुलामी इनकी हकीक़त है इसलिए राजनीति आज शक्तिशाली है...

लोग इस बाबत लिखते हैं, आवाज़ उठाते हैं, अलग अलग तरीको से विरोध प्रकट करते हैं, पर अपने फायदे के लिए, क्यूंकि आर्थिक उदारीकरण ने नजरिया और ज़रूरतों को तो बदल दिया, पर वक़्त के साथ और अपनों कि राजनीति ने हमें कभी बदलने नही दिया, वैश्विक मंच पर हमारी उपस्तिथि और हकीक़त में फर्क है जिसे हम साथ लेकर नही चल सकते, क्यूंकि हम आज भी हड़ताल करते हैं, विकास नही....

अशुद्धियों और वैचारिक हनन के लिए माफ़ी चाहता हूँ, आपके टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा..

Sunday, February 14, 2010

.........फिर वापस आज़ादी का ज़श्न मनाया जायेगा.......

63 साल पहले जब भारत आज़ाद हुआ, तब से लेकर आज तक एक विवाद जो भारतीय युवाओं के मन में चल पड़ा, वो गाँधी, भगत सिंह, और कई महान व्यक्तित्व के योगदानो की तुलना में उलझ गए, वो भूल गए आज़ादी के मतलब को, वो भूल गए गुलामी के दर्द को, शायद हमने, आपने, हम सब ने कुछ गलत नही किया... क्यूंकि हमने उस दर्द को फील नही किया.... हमने सिर्फ अपनी आज़ादी के ज़श्न में खुश रहना सिखा, अपने अधिकारों के लिए आवाजें उठाई, ब्लॉग लिखे, हममे से कुछ लोगो ने सेना ज्वाइन किया, कुछ पत्रकार बने, वक़्त बदला, आर्थिक उदारीकरण के दौर में हमने कम उम्र में कितना कुछ पाया, देश आगे बढे, हम भी आगे बढे, कम उम्र में बढे, औरतों को औरतों से प्यार हुआ, मर्दों को मर्दों से, ये संख्या इतनी बढ़ी की सरकार को झुकना पड़ा, हमने फिर ब्लॉग लिखा, सहमती जताई... पैसे की महत्ता इतनी बढ़ी की हमने अपने बच्चों को और अपने मां-पिताजी को भी केयर टेकर के जिम्मे दे  चल पड़े अपने आज़ाद ज़िन्दगी को...
 इससे ना सहमत लोगो ने तब भी आवाजें उठाई, ब्लॉग लिखे, उन मजबूरों के लिए आँसूं बहाए...
 इन 63 सालों में कई समाज सेवको ने एक बात बार-बार दुहराया, फिरंगियों के खाने को बंद करो, हमने एक नही सुनी... हमने उस बर्गर में अपनी इमेज को देखने कि कोशिश की...  ब्रांड आया, ज़िन्दगी जीने में और मज़ा आया, अब हम किसी के नौकर नही थे, व्यापार के इस दौर में हमने बिजनेस किया, शिक्षा का, धर्म का, देश का, आस्था का, अपने ही लोगो की ज़रूरतों के साथ, बदलते वक़्त के नाम पर हमने कई अनसुलझे  अपनों के साथ बिजनेसकिया , पत्रकार के रूप में, राजनेता के रूप में, समाज सेवक के रूप में, पुलिस के रूप में, वकील के रूप में....
ना जाने कितने चहरे बने, कितने मोहल्ले बने, कितनी सोसाइटी बनी, उनमे ना जाने कितने फ्लैट बने.... बदलते वक़्त ने हमें सिखाया valentine day मनाना......
हम गलत नही हैं .... क्यूंकि हम आज़ाद हैं, वक़्त बदलता है, चीजें बदलती है, लोग बदलते हैं, विचारधाराएँ बदलती है..कुछ नही बदलता, तो देश, के वो लोग जिन्होंने अपनी जान दे दी, अपनी आज की  इस आज़ादी के लिए, भगत सिंह याद हैं हमें, पर याद नही valentine day के एक दिन पहले उनकी वर्षी मनाई जाती है....
नही बदलता तो वो है,  गुलामी का दर्द.....
नही बदलता वो सफ़र जो पिछले 63 सालों में हमने वैश्विक स्तर पर बनाई है....
नही बदलता वो दौर जिसे सचिन तेंदुलकर और लता दी जिते हैं....
बदल गए मायने.... और हमने अपने इस मायने को एक अलग अंदाज़ में फिर लिखे, विरोध जताया....
लिखने का ये दौर कभी थमेगा नही.... ब्लॉग लिखे जायेंगे.... आवाजें उठाई जाएँगी.....
फिर वापस आज़ादी का ज़श्न मनाया जायेगा......

Friday, January 29, 2010

दुनिया गोल है...

जब हम हँसे तो पागल जब तू हँसे तो प्यार है,
जब हम कहें तो ठीक है, जब तुम कहे, तो ये क्यूँ नही ठीक है....
जब मैं जीता तो चलो जीत गए,
जब तुम जीते तो सिकंदर का साम्राज्य है
जब मैं लिखा तो फिर पागल जब तू लिखे तो वाह! क्या अंदाज़ है?
जब मैंने किया तो पता नही ये क्या है? जब तुमने किया तब उम्मीद है
जब सबने कहा तब कोई समझता नही, जब तुमने कहा तो फिर कोई समझता नही
जब प्यार परेशानी बन जाये तो पागलपन है,
जब प्यार बोझिल बने तो समझो दुनिया गोल है...