28 साल का हूँ जब ये याद आया, जब ज़िन्दगी इक और करवट ले रही थी. कुछ और भी थे जिनसे मिलने लगा था, कुछ थे जो छूट रहे थे. पिछले दशक के हर इक के साथ की यादें और हकीक़त को सोच रहा था. वर्षों पुराना इक भाई याद आ गया फिर कुछ सोच रहा था.... लिख रहा था....
क्या वाकई उम्र मायने रखती है ? हम लोग इक दुसरे से अलग सोचते हैं, इक दुसरे को समझने का नजरिया अलग है. स्कूल के दोस्त कॉलेज समय नही थे, कॉलेज के दोस्त अब नही हैं. आज फिर वादा कर रहे उनसे जिनके साथ हैं कि हम दोस्त हैं हमेशा साथ रहेंगे ठीक उसी तरह जैसे स्कूल, कॉलेज के वक़्त किये थे. ज़िन्दगी के हर अगले पड़ाव में लोग इक दुसरे से अलग क्यूँ होते जाते हैं ?
क्यूँ इक ही दोस्त होता है जो हमेशा आपको समझता है और आप उसे? क्यूँ नही हर रिश्ते हर किसी को समझते हैं और हमेशा साथ रहते हैं?
ठीक अभी अभी इक ऐसे दोस्त से मेरी बात हो रही थी जो दशक के शुरुवात में मिला था. मैं उससे ये सवाल नही कर पाया क्युंकि वो इसे समझ नही पाता. वो पत्रकार नही है न तो वो फिल्ममेकर है. वो सुबह 10 बजे तैयार होकर मुंबई की लोकल में चलता है उसके पास इतनी फुर्सत भी नही है कि वो सोच सके. पर शायद अच्छा है वो ये बौद्धिक जुगाली नही कर सकता. कम से कम इन उलझनों से दूर किसी और उलझन में परेशान तो है.
क्या समय से भी बड़ा कोई है? जब मैं कॉलेज में था तो ज़िन्दगी के मायने कुछ और थे, आज 4 साल बाद मायने बदल गए, नजरिया बदल गया, अपने कुछ जानने वालों को देखता हूँ जो आज भी कॉलेज में हैं वो ठीक उसी तरह हैं जैसे मैं अपने कॉलेज दिनों में था. लगता है वो भी 4-5 सालों बाद वैसे हो जायेंगे जैसा मैं आज हूँ. शायद मेरे पिता या मेरे उन दोस्तों के पिता भी अपने कॉलेज दिनों में वैसे ही रहे होंगे. कॉलेज खत्म होने के 4-5 सालों बाद उनका भी नज़रिया बदला होगा. आज जब वो रिटायर्ड हो गए हैं काफी बदलाव महसूस कर रहे होंगे. शायद मैं नही समझ सकता क्युंकि मैं ना तो समझना चाहता हूँ ना हि समझ सकता हूँ. अब जब शादी होने जा रही है तो इक और बदलाव देख रहा हूं खुद में. और सोच रहा हूँ शायद हमारे बच्चे जब स्कूल में होंगे तब वैसे ही होंगे जैसे हम या हमारे माता - पिता अपने स्कूल दिनों में थे.
हम हमेशा अपने से छोटे उम्र वालों को समझाते हैं ज़िन्दगी ये नही कुछ और है, पर जब कोई हमसे बड़ा हमें समझाता है तो लगता है कि चीजें वैसी नही है. अगर उम्र मायने नही रखती तो शायद जब हमें बड़े होते हैं तो हमारा नजरिया नही बदलता. सोचिये, क्या ऐसा होता है?????
क्या वाकई उम्र मायने रखती है ? हम लोग इक दुसरे से अलग सोचते हैं, इक दुसरे को समझने का नजरिया अलग है. स्कूल के दोस्त कॉलेज समय नही थे, कॉलेज के दोस्त अब नही हैं. आज फिर वादा कर रहे उनसे जिनके साथ हैं कि हम दोस्त हैं हमेशा साथ रहेंगे ठीक उसी तरह जैसे स्कूल, कॉलेज के वक़्त किये थे. ज़िन्दगी के हर अगले पड़ाव में लोग इक दुसरे से अलग क्यूँ होते जाते हैं ?
क्यूँ इक ही दोस्त होता है जो हमेशा आपको समझता है और आप उसे? क्यूँ नही हर रिश्ते हर किसी को समझते हैं और हमेशा साथ रहते हैं?
ठीक अभी अभी इक ऐसे दोस्त से मेरी बात हो रही थी जो दशक के शुरुवात में मिला था. मैं उससे ये सवाल नही कर पाया क्युंकि वो इसे समझ नही पाता. वो पत्रकार नही है न तो वो फिल्ममेकर है. वो सुबह 10 बजे तैयार होकर मुंबई की लोकल में चलता है उसके पास इतनी फुर्सत भी नही है कि वो सोच सके. पर शायद अच्छा है वो ये बौद्धिक जुगाली नही कर सकता. कम से कम इन उलझनों से दूर किसी और उलझन में परेशान तो है.
क्या समय से भी बड़ा कोई है? जब मैं कॉलेज में था तो ज़िन्दगी के मायने कुछ और थे, आज 4 साल बाद मायने बदल गए, नजरिया बदल गया, अपने कुछ जानने वालों को देखता हूँ जो आज भी कॉलेज में हैं वो ठीक उसी तरह हैं जैसे मैं अपने कॉलेज दिनों में था. लगता है वो भी 4-5 सालों बाद वैसे हो जायेंगे जैसा मैं आज हूँ. शायद मेरे पिता या मेरे उन दोस्तों के पिता भी अपने कॉलेज दिनों में वैसे ही रहे होंगे. कॉलेज खत्म होने के 4-5 सालों बाद उनका भी नज़रिया बदला होगा. आज जब वो रिटायर्ड हो गए हैं काफी बदलाव महसूस कर रहे होंगे. शायद मैं नही समझ सकता क्युंकि मैं ना तो समझना चाहता हूँ ना हि समझ सकता हूँ. अब जब शादी होने जा रही है तो इक और बदलाव देख रहा हूं खुद में. और सोच रहा हूँ शायद हमारे बच्चे जब स्कूल में होंगे तब वैसे ही होंगे जैसे हम या हमारे माता - पिता अपने स्कूल दिनों में थे.
हम हमेशा अपने से छोटे उम्र वालों को समझाते हैं ज़िन्दगी ये नही कुछ और है, पर जब कोई हमसे बड़ा हमें समझाता है तो लगता है कि चीजें वैसी नही है. अगर उम्र मायने नही रखती तो शायद जब हमें बड़े होते हैं तो हमारा नजरिया नही बदलता. सोचिये, क्या ऐसा होता है?????