Saturday, December 19, 2009

" जीत का ज़श्न और हार के ग़म में सबसे प्रभावी कौन है"?


कई दिन पहले मैंने एक अपने करीबी से पूछा कि " जीत का ज़श्न और हार के ग़म में सबसे प्रभावी कौन है"? स्वाभाविक था इसलिए कोई ज़वाब नहीं आया, मुझे लगा दोनों ही इतने संवेदनशील व्यवहार हैं, कि उस वक़्त सोचा नहीं जा सकता प्रभावी कौन है, और बाद में इन्हें समझने कि ताक़त किसी साधारण मनुष्य में नहीं होता है. ये महज़ एक सवाल था जिसे मैं समझने कि कोशिश कर रहा था, एक ऐसे इंसान के साथ जिसने रिश्तों पर ना जाने कितनी किताबें पढ़ी थी, जिसने वक़्त को पहले से समझा था.

उस शाम हम किसी ज़रूरी मीटिंग में थे, और ये समझने या समझाने का वक़्त नही था, पर शायद वो मीटिंग मेरी ज़िन्दगी का सबसे यादगार लम्हा था. वो था तो एक बिजनेस मीट, पर उस शाम को वंहा बिजनेस नहीं सिर्फ रिश्तों कि बात हुई थी, जिसकी पहल शायद मैंने कि थी.

मेरा परिचय वंहा एक ऐसे इंसान के रूप में कि गई जिसे शायद 'अदभुत' कहा जाता है, पर मैं जीत और हार कि लड़ाई में उलझा उनके संबोधन को समझ नहीं पाया, क्यूंकि मैं "दोस्त" में उलझा था. वंहा बात दोस्ती कि हुई थी. शायद हम अपने ज़रूर थे पर हम दोस्त नहीं थे, और मैं नहीं चाह रहा था कि दोस्ती के नाम पे झूठ बोले. हम अज़नबी नहीं थे पर हम दोस्त भी नहीं थे.

मेरे व्यवहार से वंहा का माहौल बदल गया, पर शायद मैं कसूरवार नहीं था. ना ही मैंने कभी, ना ही उसने कभी, एक दूसरे से सच कहा था, हमने कभी ज़रूरी नहीं समझा, दुसरे को अपनी ज़िन्दगी के उन पलों में शामिल करना जिससे हम अक्सर परेशान होते हैं. और अगर ऐसा नही है तो शायद मैं सही था.

आज सुबह मैंने एक और करीबी (बदकिस्मती से वो भी मेरे दोस्त नही हैं) से पूछा, कि "ज़िन्दगी रिश्तों से अक्सर हार जाती है ना?

और उन्होंने कहा "इंसान रिश्तों से नही खुद से हार जाता है". आज मैं चुप था, शायद मैं ठीक सुन रहा था. मैं नकारात्मक नही था, ना ही मेरे साथ कुछ हुआ था, पर हाँ "आज मुझे लगा कि जीत के ज़श्न और हार के ग़म में हार ज्यादा प्रभावी होता है.