Sunday, August 14, 2011

किस्मत और उम्मीद


आज़ादी तय थी इसलिए हमें मिली. ये शब्द मेरे नहीं बल्कि आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के थे. पर प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने अपने पहले भाषण में "किस्मत" के अलावा एक और महत्वपूर्ण शब्द का प्रयोग किया था, "उम्मीद". उम्मीद एक बेहतर राष्ट्र निर्माण की. कंहा हैं बेहतर राष्ट्र ? और ये सवाल अब किससे किया जाय ? पंडित नेहरु की आत्मा से या उनके वंशजों से, जो आज भी उम्मीद की बात करते हैं. भविष्य की किस्मत को अगर वर्तमान की उम्मीद के तौर पर देखें तो पंडित नेहरु समेत तमाम लोग जिन्होंने देश की बेहतरी की बात की, बेईमान लगते हैं. 
मैं सुबह घर से निकलता हूं और दिनभर हिन्दुस्तान की गलियों में, घरों में घूमता रहता हूं. दुकानदार को जब बेचता देखता हूं तो वो कोई और दिखता है जब उसे खरीददार बना देखता हूं तो वो कोई और दिखता है. नेताओं को जब बोलता हुआ देखता हूं वो कोई और होता है जब उसे किसी राजनितिक समीकरण बनाता देखता हूं वो कोई और होता है. मैं दुखी ज़रूर हूं पर भ्रस्टाचार से नहीं और ना ही  भ्रस्टाचारियों से. यहां तो हर कोई भ्रस्ट है. दुखी इस बात से हूं कि मैं यंहा हर रोज़ अपने उम्मीद को हारते देखता हूं.  पुलिस की मजबूरी  से दुखी होता हूं. वकीलों के तर्क से दुखी होता हूं. मीडिया के नज़रिए से दुखी होता हूं. हमारे ऑफिस में 4000 की पगार पर दिन भर मेहनत करने वाले एक सहयोगी को अपनी बहन की शादी के दहेज़ के लिए ज़मा करते पैसे से हतप्रभ होता हूं. 
हां, जंग में कुर्बानियां होती हैं और इस बात का अफ़सोस उन्हें भी नहीं था जो शहीद हो गए. पर इस बात की ख़ुशी उन्हें मिल गई जो जिन्दा बच गए थे. आज़ादी की लड़ाई को उन लोगों ने हर गली, हर मोहल्ले में कैश किया. पंडित नेहरु की उम्मीद कंहा चली गई जब उनके वंशजों के शासन काल में पुणे में एक और जालियांवाला नरसंहार हुआ. क्या नेहरु को नहीं मालूम था कि ६ दशक बाद उनकी उम्मीद क्या रूप अख्तियार करेगी. खूलेआम डकैती हो रही है, लूट हो रही है, बलात्कार हो रहे हैं. शासन भ्रस्ट है. प्रशासन मजबूर है. क्रिमिनल आज़ाद हैं. आम नागरिक परेशान हैं. किसान आत्महत्या कर रहे हैं. राजनेता एक दुसरे पर सिर्फ आरोप प्रत्यरोप कर रहे हैं. क्या नेहरु की उम्मीद यही थी. अगर यही थी तो राहुल गांधी की उम्मीद का क्या रूप होगा उसका अनुमान किसी भी  देशभक्त के रोंगटे खड़ा कर सकता है. कंहा होंगे हम अगले ६ दशक में. अरबों की आबादी, अशिक्षा, बेरोजगारी कुछ भी नियंत्रण में नहीं है. और अब ना तो समाज रहा ना ही अनुशासन. गांव अब शहर आ चुका है, शहर में पैर रखने की जगह नहीं है. शहरों में संसाधन नहीं हैं. गांव में जंहा मौजूद संसाधनों को विकसित किया जा सकता है वंहा वितरण की कोई नीति नहीं है. 
ज़रा फ़र्क देखिये गुलाम और आज़ाद भारत में, कल जब मराठावाद की गूंज उठी थी तब मकसद अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ना था, आज़ाद भारत का मराठावाद अब अपने ही देश में अलगाव पैदा कर रहा है. कल तक जिनके चेहरे से नफरत थी हमारे पूर्वजों को आज उनके बनाये फास्ट फ़ूड हमें रोटी दाल से अच्छे लगते हैं. कल विरोध का मतलब था सुख, शांति, चैन आज विरोध का मतलब है स्वार्थ, अपनी ख़ुशी. एक हद तक ये गलत भी नहीं है पर फिर देश, समाज, विकास के ये खाखोसले ढोंग क्यों ? भारतीयों से बेहतर भारत को मैकाले ने समझा था जिसका परिणाम हमारे सामने है. ना हमारी भाषा, ना हमारी संस्कृति हमारी संपत्ति है. सब खत्म हो गया, अंग्रेज गए अपनी अंग्रेजी छोड़ गए. 
जात पात, उंच नीच, छोटा बड़ा, गाँव, शहर, मोहल्ला, मर्द, औरत, मालिक, नौकर, सीनियर, जूनियर और ना जाने कितने उपनामों से हमने खुद को एक दुसरे से अलग कर रखा है. और अनेकता में एकता का पाठ पढ़ाकर बौद्धिक जुगाली में खुश होते हैं हम. कोई जन लोकपाल बिल इस देश को नहीं बदल सकता. और न ही कोई अन्ना हमारा नसीब लिख सकता है. इस देश को हम खुद बदल सकते हैं. पर इसके लिए हमें बदलना होगा. औरों को परखना बंद करना होगा. खुद को शीशे के सामने रख खुद के अन्दर के कलमाड़ी और ए राजा की पहचान करनी होगी .