सत्यजित रे, गोविन्द निहलानी, श्याम बेनेगल और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की याद आते ही अगर कुछ जुबान पर आता है तो वो है कहानी और किरदार, पर बदलती सोच से बदलते दौर में भारतीय सिनेमा को आज अगर देखा जाय तो कहानी और किरदार से भी पहले स्टार और मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका को नजरंदाज नही किया जा सकता।
एक किरदार और उसके आसपास की कहानी, कहानी कहने वालों का उद्देश्य और उनकी समझ एक ऐसा आधार बनाता है, जिससे एक वक्ता अपनी बात सिनेमा के माध्यम से करता है. दौर चाहे जो भी रहा हो सिनेमा कभी अपने मूल भाव से नही भटका है, पर वक्ता के व्यक्तव्य और उद्देश्य को परिभाषित करते हुए सच के रूप में मीडिया ने बदलते दौर में सिनेमा के रूप को बदल दिया। मीडिया ने जंहा इसके बाह्य रूप को प्रभावित किया वँही सुचना क्रांति के दौर में सिनेमा व्यवसाय में उद्दमियों को जमकर फायदा पहुँचाया। आर्थिक संपन्नता और बढ़ते व्यवसाय ने स्टारडम को व्यवसायिकता के तराजू पर तौलना शुरू किया। तेल - साबुन - टूथपेस्ट बेचने वालों ने भाषा और शब्द को बेचना शुरू किया। मिलावट इस कदर थी की स्टार के पीछे खडा अभिनेता बीमार हो गया. .
क्रिकेट के साथ 21 वीं सदी तक में अपने अथक प्रयासों के बाद बॉलीवुड ने भारतीय मानसिकता पर अपना कब्जा जमाया। मनोरंजन के बहाने स्टारडम को बेचने में फूहड़ता के सहारे मीडिया के अन्य माध्यमों का अच्छा खासा भला हुआ। रियालिटी शो, कॉमेडी शो, ग्लैमर शो जैसे ना जाने कितने शो बने जिन्होंने दर्शाया की मीडिया भी बदल रही है। सच बोलने की जरूरतों के बजाय भारतीय मीडिया स्टारडम के साए में भारतीय सिनेमा को तवज्जो देने लगी। राजनेताओं के झूठ और विदर्भ में किसानो की मौत से उब चुकी मीडिया के पास सिनेमा की सपफलता को कैश करने से बेहतर कुछ भी नही था।
अब इसे गलत कहा जाय या बदलाव की सतत् प्रक्रिया मानकर इसे अपनाने की कोशिश की जाय? एक ऐसा सवाल, जिसमें एक अहम उलझन भी है। वर्तमान सिनेमा की जितनी तारीफ की गई उससे कंही ज्यादा इसकी तारीफ करवाई गई. बडबोलेपन और अंदरूनी कलह से जुझती वर्तमान भारतीय सिनेमा और मीडिया के अस्तित्व का कोई आधार नही है, ऐसे में ये मान लेना की चीजें बदल चुकी हैं ये काफी नही है।
वर्चस्व से पहले अस्तित्व का सवाल होता है जिसे बाजारीकरण से प्रभावित हो चुके प्रकाश झा, श्याम बेनेगल, राज कुमार संतोषी, अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी जैसे फिल्मकारों को समझना होगा।